कविता

दरख्त

तूफान ज़िंदगी के इतने झेले कि तूफान भी दोस्त बन गए,
पर जिसके लिए दर-दर भटका वो किसी और के हो गए,
सुन ऐ जिंदगी कुछ तो करामात कर, सुकून की बरसात कर,
वक़्त दूर नहीं जब कब्र में सो जाऊंगा मैं लम्बी तान कर.
ऐ खुदा गुज़ारिश है तुझसे, मुझे अगली ज़िन्दगी में दरख्त ही बनाना,
क्योंकि उम्रदराज दरख्तों के साये में ज़िन्दगियां छांह पा लेती हैं,
एहसान फरामोश इंसान कभी किसी के काम आए या न आए,
दरख्त तो कटने के बाद काटने वालों के भी काम आ जाते हैं.
ये दरख्त ही तो हैं जो पतझड़ में अपनों के बिछड़ने पर सिसकते नहीं,
पत्तियां झड़ें, डालियां कटें फिर भी कहीं शिकन का दीदार होने देते नहीं,
जला दी जाएं इनकी पत्तियां, झोंक दी जाएं आग में इनकी डालियां,
कोई शिकवा नहीं इन्हें किसी से, किसी से ये कोई शिकायत करते नहीं.
ज़मीं की मिट्टी, सूरज की रोशनी, आसमां से पानी पाकर बड़े हुए ये दरख़्त,
पत्थर खाकर, लुट कर भी ये भरते हैं झोलियां, मगर कोई रंजो-गम नहीं,
क्या इंसान, क्या जानवर, क्या परिंदे किसी में भी करते नहीं ये कोई फर्क,
ये ख़ुदा की दूसरी मूरत हैं पर नहीं मांगते किसी से भी सजदा-ए-शुकराना.
कैसा अजीब है ये इंसान, सांसें देने वाले की सांसें काटता जा रहा है,
रोना रोता है ख़राब हवाओं का, दरख़्तों को नेस्तनाबूद करता जा रहा है,
खुद को समझ कर इस धरती का खुदा, दरख़्तों को कर रहा उनकी जड़ से जुदा,
इन्हीं की आबोहवा में ज़िन्दगी पाने वाले, उठ जाग, कर खुद को होश के हवाले.
अरे ओ आज के इंसान, अपनी अक्ल का कुछ कर इस्तेमाल,
खुद ही अपने हाल से न हो बेहाल, उम्रदराज़ दरख़्त उम्र भी बांटा करते हैं,
यकीन आसानी से इस बात पर तो तुझे शायद कभी होगा नहीं,
कभी दरख़्तों के साये में बैठ के देख,
न हो जाये इश्क दरख़्तों से तो मेरी हस्ती मिटा देना.

सुदर्शन खन्ना

वर्ष 1956 के जून माह में इन्दौर; मध्य प्रदेश में मेरा जन्म हुआ । पाकिस्तान से विस्थापित मेरे स्वर्गवासी पिता श्री कृष्ण कुमार जी खन्ना सरकारी सेवा में कार्यरत थे । मेरी माँ श्रीमती राज रानी खन्ना आज लगभग 82 वर्ष की हैं । मेरे जन्म के बाद पिताजी ने सेवा निवृत्ति लेकर अपने अनुभव पर आधरित निर्णय लेकर ‘मुद्र कला मन्दिर’ संस्थान की स्थापना की जहाँ विद्यार्थियों को हिन्दी-अंग्रेज़ी में टंकण व शाॅर्टहॅण्ड की कला सिखाई जाने लगी । 1962 में दिल्ली स्थानांतरित होने पर मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा पिताजी के साथ कार्य में जुड़ गया । कार्य की प्रकृति के कारण अनगिनत विद्वतजनों के सान्निध्य में बहुत कुछ सीखने को मिला । पिताजी ने कार्य में पारंगत होने के लिए कड़ाई से सिखाया जिसके लिए मैं आज भी नत-मस्तक हूँ । विद्वानों की पिताजी के साथ चर्चा होने से वैसी ही विचारधारा बनी । नवभारत टाइम्स में अनेक प्रबुद्धजनों के ब्लाॅग्स पढ़ता हूँ जिनसे प्रेरित होकर मैंने भी ‘सुदर्शन नवयुग’ नामक ब्लाॅग आरंभ कर कुछ लिखने का विचार बनाया है । आशा करता हूँ मेरे सीमित शैक्षिक ज्ञान से अभिप्रेरित रचनाएँ 'जय विजय 'के सम्माननीय लेखकों व पाठकों को पसन्द आयेंगी । Mobile No.9811332632 (Delhi) Email: mudrakala@gmail.com

5 thoughts on “दरख्त

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    सुधर्शन भाई , गीत बहुत सुन्दर और जागरूपता भरपूर है . मेरे बचपन के समय हमारे गाँव के इर्द गिर्द इतने दरख्त होते थे की जंगल जैसा परतीत हुआ करता था लेकिन आज दरख्त कहीं दिखाई नहीं देते .मेरे बाबा जी ( दादा जी ) खुद दरख्त बीजा करते थे और हम कुछ बच्चे इन जंगल रुपी दरख्तों में अपनी गाये भैंसें ले कर जाया करते थे . आज दूर दूर तक कोई दरख्त दिखाई नहीं देता जो बहुत दुःख की बात है . अब इंडिया में वातावरण और पक्षिओं के बारे में जागरूपता आ रही है लेकिन बहुत स्लो है .आप की कविता में बहुत कुछ छिपा है, बस जनता को समझने की जरूरत है .

    • सुदर्शन खन्ना

      आदरणीय दादा जी, सादर प्रणाम. अब से मैं आपको दादा जी ही कहा करूँगा. ज़िन्दगी की अंधाधुंध दौड़ में हम बुनियादी बातों को किनारे करते जा रहे हैं. ताज़्ज़ुब होता है जब कॉन्क्रीट के जंगलों में रहने वाले लोग पैसे खर्च करके पहाड़ों पर दरख़्त देख कर खुश होते हैं. और जब मकान बनाते वक़्त कोई दरख़्त आड़े आ जाए तो बेरहमी से काट डाल देते हैं. स्वार्थी हो चले हैं. दरख्तों पर विज्ञापन टांगने के लिए कील ठोक देते हैं. लालची हो गए हैं. दुःख होता है. आपने कहा जागरूकता आ रही है, सही है, नयी पीढ़ी समझदार होनी चाहिए. पुनः सादर नमन.

      • लीला तिवानी

        हमारी सिंधी भाषा में दादा बड़े भाई को कहते हैं. बुजुर्गों को भी दादा कहते हैं.

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर सुदर्शन भाई जी, बहुत सुंदर गीत के लिए आप बधाई के पात्र हैं. दरख्त की पीड़ा और पर्यावरण में दरख्तों की अवर्णनीय भूमिका को दर्शाती हुई इस खूबसूरत गीत को पढ़कर रसखान जी का कवित्त-सवैया याद आ गया-
    मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
    जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
    पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
    जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
    एक बार फिर बहुत सुंदर गीत के लिए बधाई.

    • सुदर्शन खन्ना

      आदरणीय दीदी, सादर प्रणाम. सर्वप्रथम मैं आभार प्रकट करना चाहूंगा जो आपने दरख़्त को सराहा और इस गीत को पढ़ कर आपको रसखान जी का कवित्त-सवैया स्मरण हो आया. एक शिक्षिका के नाते आप ज्ञान का भंडार हैं जिसमें ज्ञान के अकूत हीरे मोती जगमगा रहे हैं. इसी प्रकार आपके प्रतिक्रियारूपी स्नेहिल शब्द भी जगमगा रहे हैं और लेख को रोशन कर रहे हैं. यह उत्साहवर्धन की परिकाष्ठा है. पुनः हार्दिक नमन.

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