इतिहास

भगवान महावीर क्रांतिकारी युगपुरुष थे

भगवान महावीर की जयन्ती मनाते हुए हमें महावीर के जीवनदर्शन को जीवनशैली का संकल्प लेना होगा। वे एक क्रांतिकारी युगपुरुष थे, उनकी क्रांति का अर्थ रक्तपात नहीं! क्रांति का अर्थ है परिवर्तन। क्रांति का अर्थ है जागृति! क्रांति अर्थात् स्वस्थ विचारों की ज्योति! क्रांति का अर्थ आग नहीं। क्रांति का अर्थ है सत्य की ओर अभियान। पूर्णता की ओर बढ़ना क्रांति है। महावीर ने जब अपने युग की जनता को धार्मिक-सामाजिक, आध्यात्मिक एवं अन्य यज्ञादि अनुष्ठानों को लेकर अज्ञान में घिरा देखा, साधारण जनता को धर्म के नाम पर अज्ञान में पाया, नारी को अपमानित होते देखा, शुद्रों के प्रति अत्याचार होते देखे-तो उनका मन जनता की सहानुभूति में उद्वेलित हो उठा। वे महलों में बंद न रह सके। महावीर ने स्वयं प्रथम ज्ञान-प्राप्ति का व्रत लिया था और वर्षों तक वनों में घूम-घूम कर तपस्या करके आत्मा को ज्ञान से आलोकित किया। स्वयं ने सत्य की ज्योति प्राप्त की और फिर जनता में बुराइयों के खिलाफ आवाज बुलन्द किया। उनके द्वारा किए गये उपकार से मानव जाति उपकृत हुई। और वे युग-युग तक दुःखी जनता की श्रद्धा के आधार बन गये।
महावीर का जन्म विषमता एवं विसंगतिया भरे युग में आज से 2618 वर्ष पूर्व क्षत्रिय कुण्डनपुर के राजा सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला के घर-आंगन में हुआ। वह शुभ वेला थी-चैत्र शुक्ला त्रायोदशी की मध्य रात्रि। गर्भाधान के साथ ही बढ़ती हुई सुख सम्पदा को देख बालक का नामकरण किया गया-वर्धमान। जिसके साए में था मानवता का प्यार-दुलार और समता का संसार। नन्हें शिशु के अबोले पर सक्षम आभामण्डल का ही प्रभाव था कि पुत्र जन्म की बधाई देने वाली दासी प्रियंवदा को आभूषणों का उपहार ही नहीं मिला पर महाराजा सिद्धार्थ ने सदा-सदा के लिए उसे दास्य कर्म से मुक्त कर दिया। शिशु की समता को उजागर करने वाली यह पहली दस्तक दासप्रथा उन्मूलन पर हुई। शिशु की आंखों में करुणा और मैत्री का अजस्र पारावार लहरा रहा था। रोम-रोम से विशुद्ध प्रेम प्रवाहित हो रहा हो और सांसों की हर सरगम पर समता का स्वर थिरक रहा हो ऐसा अहसास हर किसी को हो रहा था। अपने लाडले की मूक करुणा से प्रभावित राजा और रानी विसर्जन के लिए उतावले हो रहे थे। कैदियों को मुक्त कर बंधन मुक्ति के संदेश को वर्धापित कर रहे थे। जैन धर्म के अनुसार कोई भी तीर्थंकर अतिमानव अवतार के रूप में नहीं अपितु सामान्य व्यक्तियों की तरह ही जन्म लेते हैं।
महावीर राजकुमार थे। राजकुमार होते हुए प्रजा की भलाई के लिए उन्होंने विपुल प्रयत्न किए। राज-शासन के द्वारा सामाजिक क्षेत्र में सुव्यवस्था लाने के प्रयत्न किए, किन्तु उन्होंने देखा कि राज-शासन के द्वारा जैसी चाहिए वैसी सुव्यवस्था और क्रांति नहीं लाई जा सकती। क्योंकि राज-शासन के अधिनायक स्वयं मोहमाया ग्रस्त प्राणी होते हैं, अतः वे समाज सुधार के कार्य में पूर्णतया सफल नहीं हो पाते। भला, जो जिस चीज को अपने हृदयतल में से नहीं मिटा सकता, वह दूसरे हजारों हृदयों से उसे कैसे मिटा सकता है? राज-शासन की आधारशिला प्रेम, स्नेह एवं सद्भाव की भूमि पर नहीं रखी जाती। वह रखी जाती है, प्रायः भय, आतंक और दमन की नींव पर। यही कारण है कि राज-शासन प्रजा में न्याय, नीति और शंाति की रक्षा करता हुआ भी अधिक स्थायी व्यवस्था कायम नहीं कर सकता। जबकि धर्म-शासन परस्पर के प्रेम और सद्भाव पर कायम होता है, फलतः वह सत्य-पथ प्रदर्शन के द्वारा मूलतः समाज का हृदय परिवर्तन करता है और सब ओर से पापाचार को हटाकर स्थायी न्याय, नीति तथा शांति की स्थापना करता है।
महावीर अन्ततोगत्वा इसी निर्णय पर पहुंचे कि भारत का यह दुःसाध्य रोग साधारण राजनीतिक हलचलों से दूर होने वाला नहीं है। इसके लिए तो सारा जीवन ही उत्सर्ग करना पड़ेगा, क्षुद्र परिवार का मोह छोड़ कर ‘विश्व-परिवार’ का आदर्श अपनाना होगा। राजकीय वेशभूषा से सुसज्जित होकर साधारण जनता में घुला-मिला नहीं जा सकता। वहां तक पहुंचने के लिए तो ऐच्छिक लघुत्व स्वीकार करना होगा, अर्थात् भिक्षुत्व स्वीकार करना होगा।
भगवान महावीर सामाजिक क्रांति के शिखर पुरुष थे। महावीर का दर्शन अहिंसा और समता का ही दर्शन नहीं है बल्कि क्रांति का दर्शन है। उन्होंने केवल धर्म तीर्थ का ही प्रवर्तन  ही नहीं किया बल्कि एक उन्नत और स्वस्थ समाज के लिए नये मूल्य-मानक गढ़े। उन्होंने प्रगतिशील विचारों को सही दिशा ही नहीं दी बल्कि उनमें आये ठहराव को तोड़कर नयी क्रांति का सूत्रपात किया। समााजिक क्रांति के संदर्भ में उनका जो अवदान है, उसे उजागर करना वर्तमान युग की बड़ी अपेक्षा है, यही महावीर जयन्ती मनाने की भी सार्थकता है। ऐसा करके ही हम एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकेंगे।
तीस वर्ष की युवावस्था में सहज रूप से प्राप्त सत्ता वैभव और परिवार को सर्प कंचुकीवत् छोड़ साधना के दुष्कर मार्ग पर सत्य की उपलब्धि के लिए दृढ़ संकल्प के साथ चल पड़े। बारह वर्ष से भी अधिक अवधि तक शरीर को भुला अधिक से अधिक चैतन्य के इर्द-गिर्द आपकी यात्रा चलती रही। ध्यान की अतल गहराइयों में डुबकियां लगाते हुए सत्य सूर्य का साक्षात्कार हुआ। वे सर्वज्ञ व सर्वदर्शी बन गये वह पावन दिन था वैशाख शुक्ला दशमी।
लक्षित मंजिल उपलब्ध हो चुकी थी। इसी अनुभूत सत्य को आपने जन-जन तक पहुंचाने  में उपदेशामृत की धार बहाई। वह अमृत सबके लिए समान रूप से था। उसमें जाति, वर्ण, रंग, लिंग, अमीर, गरीब की भेदरेखाएं नहीं थी। अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार हर कोई उसे उपलब्ध कर सकता था। महावीर ने समतामूलक समाज का उपदेश दिया। जहां राग, द्वेष होता है, वहां विषमता पनपती है। इस दृष्टि से सभी समस्याओं का उत्स है-राग और द्वेष। व्यक्ति अपने स्वार्थों का पोषण करने, अहं को प्रदर्शित करने, दूसरों को नीचा दिखाने, सत्ता और सम्पत्ति हथियाने के लिए विषमता के गलियारे में भटकता रहता है।
महावीर ने आकांक्षाओं के सीमाकरण की बात कही। उन्होंने कहा मूच्र्छा परिग्रह है उसका विवेक करो। आज की समस्या है- पदार्थ और उपभोक्ता के बीच आवश्यकता और उपयोगिता की समझ का अभाव। उपभोक्तावादी संस्कृति महत्वाकांक्षाओं को तेज हवा दे रही है, इसीलिए जिंदगी की भागदौड़ का एक मकसद बन गया है- संग्रह करो, भोग करो। महावीर की शिक्षाओं के विपरीत हमने मान लिया है कि संग्रह ही भविष्य को सुरक्षा देगा। जबकि यह हमारी भूल है। जीवन का शाश्वत सत्य है कि इंद्रियां जैसी आज है भविष्य मंे वैसी नहीं रहेगी। फिर आज का संग्रह भविष्य के लिए कैसे उपयोगी हो सकता है। क्या आज का संग्रह कल भोगा जा सकेगा जब हमारी इंद्रिया अक्षम बन जाएंगी। महावीर का दर्शन था खाली रहना। इसीलिए उन्होंने जन-जन के बीच आने से पहले, अपने जीवन के अनुभवों को बांटने से पहले, कठोर तप करने से पहले, स्वयं को अकेला बनाया, खाली बनाया। तप तपा। जीवन का सच जाना। फिर उन्होंने कहा अपने भीतर कुछ भी ऐसा न आने दो जिससे भीतर का संसार प्रदूषित हो। न बुरा देखो, न बुरा सुनो, न बुरा कहो। यही खालीपन का संदेश सुख, शांति, समाधि का मार्ग है। दिन-रात संकल्पों-विकल्पों, सुख-दुख, हर्ष-विषाद से घिरे रहना, कल की चिंता में झुलसना तनाव का भार ढोना, ऐसी स्थिति में भला मन कब कैसे खाली हो सकता है? कैसे संतुलित हो सकता है? कैसे समाधिस्थ हो सकता है? इन स्थितियों को पाने के लिए वर्तमान में जीने का अभ्यास जरूरी है। न अतीत की स्मृति और न भविष्य की चिंता। जो आज को जीना सीख लेता है, समझना चाहिए उसने मनुष्य जीवन की सार्थकता को पा लिया है और ऐसे मनुष्यों से बना समाज ही संतुलित हो सकता है, स्वस्थ हो सकता है, समतामूलक हो सकता है।
जरूरत है उन्नत एवं संतुलित समाज निर्माण के लिए महावीर के उपदेशों को जीवन में ढालने की। महावीर-सी गुणात्मकता को जन-जन में स्थापित करने की। ऐसा करके ही समाज को स्वस्थ बना सकेंगे। कोरा उपदेश तक महावीर को सीमित न बनाएं, बल्कि महावीर को जीवन का हिस्सा बनाएं, जीवन में ढालें।
आचार्य डाॅ. लोकेशमुनि
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