कविता

अब आग पल रही है

चिलचिलाती धूप
दर-दर  का मौसम बदल रही है

सुबह से नाराज  पसरी
आग बरसे दोपहर में
छाँह के भी अधर सूखे
रात-दिन के हर पहर  में
सनसनाती लू-लपट
अब तेज पछुआ चल रही है

गांव कस्बे शहर की
हर जिंदगी ठहरी हुई है
कान पर बांधे अगौछे
लग रहा बहरी हुई है
तरबतर है स्वेद से
अब हाथ अपने मल रही है

ताल पोखर नद-नदी
सब जी रहे अकुलाहटें हैं
ढूंढते बेचैन होकर
बादलों की आहटें हैं
दहक रही सांस सांस
मन में अब आग पल रही है

कौन जाने चढ़ गया है
पारा कहाँ तक आज-कल
मौन सन्नाटा पड़ा है
देखो जहाँ तक आज-कल
पड़ गई है जान सांसत में
बस सांस टल रही है

चिल-चिलाती धूप
दर-दर का मौसम बदल रही है

जयराम जय

जयराम जय

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