कविता

जाने दो उसे

उन्मुक्त पंछी के जैसे; उसे भी गगन में उड़ने दो,

जाने दो,उसको मत रोको,अपने मन की करने दो।

हंसने,खेलने और पढ़ने का,उसको भी अधिकार है,

जो छीने उसके सपनों को,उसको तो धिक्कार है!

कब तक उसका शील भंग कर, उसके मन को तोड़ोगे?

अपनी हीन मानसिकता के चलते उसको न बढ़ने दोगे?

वह भी तो है अंश ईश का; प्रकृति का उपहार है,

फ़िर क्यों उसके खिलखिलाने पर, तुमको ऐतराज है?

वह भी मान तुम्हारा है; इक दिन सम्मान बढ़ाएगी,

जब भी होगे मुश्किल में तो,काम तुम्हारे आएगी।

*कल्पना सिंह

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