अहंकार
दो दोस्त थे। बचपन में दोनों में बोझ उठाकर पहाड़ी पर दौड़ते हुए चढ़ने की होड़ होती थी,जिसमें मयंक हमेशा बाज़ी मार ले जाता था,और हरीश सदा पीछे रह जाता था।वर्षों बाद वे फिर मिले। परिचय हुआ तो ज्ञात हुआ कि मयंक सेना में कैप्टन है,और हरीश सैनिक।
मिलते ही बचपन की दौड़ की याद ताज़ा हो गई। मयंक ने फिर से बोझ उठाकर पहाड़ी पर चढ़ने की प्रतियोगिता रखने की इच्छा प्रकट की,जिसे हरीश ने नानुकर के बाद स्वीकार कर लिया। दोनों ने बराबर बोझ उठाया,और पहाड़ी की ओर दौड़ पड़े। मयंक अपनी जीत के प्रति आश्वस्त था। पर बचपन का परिणाम जवानी में बदल गया। पहले मयंक जीतता था, पर अब हरीश जीत गया।
अपनी इस अप्रत्याशित हार से मयंक आश्चर्यचकित था। बोलती बंद थी। समझ में ही नहीं आ रहा था कि पहली बार यह क्या हो गया। मयंक की यह हालत देख इस वाकये के साक्षी कर्नल सुजीत बोले -“मिस्टर मयंक आप जानना चाहेंगे कि आप कैसे हार गये ?”
फिर ख़ुद ही बोले -” वह इसलिए, क्योंकि आपके ऊपर हरीश की अपेक्षा बोझ कहीं अधिक था। ”
“नहीं सर, ऐसी बात तो नहीं थी, बोझ तो बराबर ही था। ” मयंक ने जुबान खोली।
“था क्यों नहीं? अरे लदे हुये बोझ के अलावा तुम्हारे ऊपर तुम्हारे सदा विजयी होने के अभिमान और पद के अहंकार का भारी बोझ भी तो था।”
— प्रो.शरद नारायण खरे