लघुकथा

नसीब

“मेमसाहब दस रूपये दो ना कुछ सुबह से नहीं खाया बड़ी भूख लगी है।” सड़क पर भीख माँगता हुआ एक सात साल का बच्चा तरसती निगाहों से।
लीना ने गाड़ी एक कोने में करी और बच्चे को बुलाकर पास में खड़े बड़ा पाव वाले से कहा कि उसको भर पेट खाने दो। उसका पेट जब भर गया तब एक सवाल जो उसके मन में बहुत देर से हिचकोले खा रहा था बाहर आ गया।
“बेटा तुम भीख क्यों माँग रहे हो? तुम्हारे माता-पिता कहाँ हैं मिलना चाहती हूँ।” लीना बोली
थोड़ी देर चुप रहने के बाद आँखों में आँसू लिए हुए वह बच्चा बोला “मेमसाहब मेरे माता-पिता कहाँ हैं? मुझे नहीं पता। मैने जब आँखें खोलीं तब मैं ऐसी जगह था जहाँ यह कहा गया मुझसे कि तुम्हें हम डस्टबीन से उठाकर लायें हैं। जो हम कहेंगें तुम्हें वही करना होगा और यह बात भी गाँठ बाँध लो कि यहाँ पर सपने देखना मना है।” कहते-कहते ज़ोर-ज़ोर से रोने लगता है।
“क्या तुम मेरे साथ चलना चाहोगे?” लीना ने प्रश्न किया
“नहीं मेमसाहब क्यों अपनी जान जोखिम में डालना चाहती हो? मेरा नसीब मेरे माँ-बाप ने पैदा होने से पहले ही लिख दिया था।” बच्चा तरसती निगाहों से अलविदा कहता हुआ।
भरपेट भोजन के बाद उसकी आँखों में जो लीना ने आत्मविश्वास के सुनहरे पल देखे वह शायद वह कभी ना भुला पाए।
“इसमें बच्चे का क्या क़ुसूर था? जो वह भुगत रहा है। काश! उसके सपने भी साकार हो पाते मैं इस पूरे सिस्टम को बदल पाती।” लीना सोचती हुई घर आ जाती है।

— नूतन गर्ग (दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक