सुरक्षा-कवच
मुस्कान की मुस्कान वापिस लौट आई थी. पढ़ाई में भी उसका मन लगने लगा था. कैसे हुआ यह सब! मुस्कान कभी-कभी सोचने लगती थी.
”मुस्कान बेटी, आजकल तेरी मुस्कान कहां गायब हो गई है?” मां ने चिंतित होते हुए एक दिन कहा था.
”नहीं तो ममी, देखो मैं तो मुस्कुरा रही हूं.” मुस्कान ने नकली मुस्कान ओढ़ते हुए कहा.
”लगता है तेरे मन को कोई बात उलझन में डाले हुए है.”
”नहीं तो!” वह फिर कुछ सोचने लगी थी, यह बात मां से छिपी न रह सकी.
”बेटी मां-बच्चों के बीच में जब संवादहीनता आने लगती है, तो दोनों को पछतावा ही हाथ लगता है.” मां ने आशंका को निर्मूल नहीं होने दिया था- ”बता बेटी, बता क्या सोच रही है?”
”मां, यह जो रेडियो में रोज बोलते हैं’ ”अपने बच्चों के कान-आंख खुद बनें, इसी में उनकी भलाई है. क्या आप भी ऐसा करती हैं?”
”और क्या? तभी तो बच्चे सुरक्षित रह सकते हैं न!”
”आप मेरे से मुस्कान खोने और उलझन होने की बात क्यों पूछ रही थीं.” संवादहीनता समाप्त होने लग गई थी.
”मैं देख रही थी 2-3 दिन से तू खोई खोई-सी रहने लगी थी. आज देखा, पार्क में तू बेंच पर बैठी थी, कि एक लड़का तेरी ओर हाथ बढ़ा रहा था और तू भाग आई. है न!”
”सच्ची मां, मुझे बहुत डर लग गया था. तूने मुझे गुड टच और और बैड टच के बारे में भी तो जागरुक कर दिया है न!”
”तो डरकर भागने से काम चलेगा क्या?” मां ने बेटी के मन को झिंझोड़ा.
”फिर क्या करूं?” बेटी रुआंसी-सी हो गई थी.
”है न इलाज! ठहर मैं तुझे एक पुड़िया देती हूं” मां ने डिपार्टमेंटल स्टोर के एक पेपर बिल में लाल मिर्ची का पाउडर डालकर पुड़िया बना दी और अगले दिन ऐसी हरकत करने पर उसकी आंखों में डालने की तरकीब बताते हुए कहा- ”इस तरह करने से वही चिल्लाएगा और भागेगा, तुझे भागने की जरूरत नहीं पड़ेगी. बाकी काम पार्क में घूम रहे लोग करके उसे सबक सिखा देंगे.”
सचमुच उसने ऐसे ही तो किया था. फिर तो उसकी ऐसी पिटाई हुई थी, कि उसने उस पार्क में न आने की कसम खाई थी और वह कभी दिखा भी नहीं.
आगे की पीढ़ी की सुरक्षा के लिए उसने भी इस सुरक्षा-कवच को हृदयंगम कर लिया था.
बहुत अच्छा फार्मूला आज की लड़किओं के लिए लीला बहन .
प्रिय गुरमैल भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि हमेशा की तरह यह रचना भी आपको बेहद सुन्दर और लाजवाब लगी. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.
मां-बच्चों के बीच में जब संवादहीनता आने लगती है, तो दोनों को पछतावा ही हाथ लगता है. यही संवादहीनता जब स्वतंत्र रूप से अपने अस्तित्व में आ जाती है, तो अभिभावक कोई-न-कोई हल निकाल लेते हैं और सचमुच बच्चों के आंख-कान बनकर उनको इलाज बता देते हैं, जो अगली पीढ़ियों के लिए भी सुरक्षा-कवच का काम करता है.