लघुकथा

कल की आहट

अनिता चैन की लंबी  सांस ली, सपने में भी उसने  नहीं सोचा था कि जिस बात पर आए दिन दिवाकर से बहस होती  रहती है उसका समाधान यूँ  निकलेगा।
        उच्च अधिकारी पति पर गर्व करने की जगह वह लज्जित होती। दिवाकर को पैसे की ऐसी हवस लग गई थी कि वो रिश्वत की खाई में गिरता ही जा रहा था। भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बन मलाई खाते हुए उसे एक पल भी एहसास नहीं होता कि उसके इस कृत्य से कितने लोगों की जानें  जा सकती हैं।
 खुद्दार अनिता गलत तरीके से पैसे कमा कर भौतिकवादी दुनिया में प्रदर्शन करने की जगह नमक रोटी खा सुकून की जिंदगी जीना ज्यादा श्रेष्ठ समझती । दिवाकर उसकी बातों की खिल्ली उड़ाते हुए उसे व्यवहारिक बनने की सलाह  देते हुए कहता ” मैडम पेट आदर्श से नहीं भरता,आदर्श की बातें सुनने और सुनाने में ही अच्छी लगती है”।
   किशोर होते हुए बेटे से माता पिता की मनोदशा छुपी नहीं थी।आज सुबह से वह परेशान दिख रहा था।समाचार पत्र  पढ़ते हुए  पिता की ओर मुखातिब होते हुए उसने कहा ” आज  पहले पन्ने पर ही बबलू के पिता की तस्वीर आई है,उन्हे रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया गया है। उनके घर में सी. बी .आई  वालों ने तलाशी ली है। जब सरकार वेतन देती ही है तो  रिश्वत क्यों लेते है  लोग? कितना बुरा लगेगा जब घूसखोर पिता के नाम पर उसका  मजाक बनाया जाएगा “।
” पैसा और भौतिक चीजों को पाने के लिए उसके पिता को कैसी कीमत चुकानी पड़ी कि आज वो जेल में हैं।नहीं चाहिए हमें ऐसी उच्चस्तरीय जीवनशैली जिसमें  खुशियाँ रिश्वत के रंग से रंगे हों ”  उसकी आवाज पिता के भविष्य का सोच कांपने लगी थी। भौंचक  से बैठे  दिवाकर बेटे से नजर चुराये वहाँ से हट गये।
      अनिता को अपने दिये गये संस्कारों पर गर्व हो रहा था।ऐसे समाचार तो आए दिन आते ही रहते थे पर आज उसके अभिमन्यु ने  आईना दिखा कर धन-दौलत के चक्रव्यूह में फंसे हुए पिता की आँखे खोल दी थी। अनिता को कल की आहट हो चुकी थी…. ” अब उसके घर के चूल्हे  में  भी ईमानदारी और संतुष्टि की सौंधी रोटी पकेगी”।
— किरण बरनवाल 

किरण बरनवाल

मैं जमशेदपुर में रहती हूँ और बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से स्नातक किया।एक सफल गृहणी के साथ लेखन में रुचि है।युवावस्था से ही हिन्दी साहित्य के प्रति विशेष झुकाव रहा।