लघुकथा आरोप–प्रत्यारोप
सास दूसरे शहर से नौकरी कर आये बेटे विनय को बहू के बारे में अनाप-शनाप कह रहा थी। अभी विवाह को महीना भर ही हुआ था| बहू घर के कायदे-ढंग सही से जान भी नहीं पाई थी| रात को विनय नौकरी से आया और पत्नी ने अपने हिसाब से रसोई में काम किया| सुवह सास बोली, “विनय, ये देखो सारा सामान बिखरा पड़ा है और बचा आटा भी नहीं ढका|” इसको हम क्या क्या बात सिखाएंगे, हर समय बस सोती रहती है| तुम ही इसको बुलाओ और पूछो कि क्या चाहती है हमसें| नहीं तो मैयके भेज दे, माँ से कुछ सीख कर आयेगी|” विनय क्रोध में, ”नेहा, इधर आओं, ज़ल्दी से अभी इसी समय!” नेहा डरी सी थी उसनें पति का ये रूप नहीं देखा था| धीरे कदमों से सामने खड़ी आंखे झुकाएँ बोली, “जी|” विनय बोला, “ये रसोई का हाल देखो और ये आटा क्यों बाहर पड़ा है, फ्रिज किस लिये है| सब खराब हो चूका न, अब क्या करोगी बताओं|” क्रोध में दांत पीसते बाजू पकड़ने को दौड़ा पर नेहा भाग सास से लिपट गई और बोली, “ममा, आप ने तो बोला था कि आलू भठूरे का मन है इसीलिए मैंने आटा बाहर रखा था|” फिर पति से बोली, “आपके आने की खुशी में मै और ममा इतने खुश हुये हैं|” नेहा उत्साहित होकर बोली, “ममा जी, आप अंदर बैठो मै अभी बढ़िया खाना खिलाती हूँ| हम लोग भी क्या प्रतियाशी की तरह आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेल रहे हैं।” सास ये सुन सुनकर अवाक् रह गई।
— रेखा मोहन