कविता
कहते हो, डर लगता है तुम्हें मुझसे…
कहीं उलझा न दूं तुम्हें शब्दों के जाल में…
हां जादूगर भी तो कहते हो मुझे…
पर जानते हो….
ये शब्द ही तो हैं जिनमें जिंदा हूं मैं
सुनो …..
जब मैं न रहूंगी
तब पढ़ना मेरे लिखे को
महसूस करना , और
कोशिश करना समझने की..
तब शायद समझ पाओगे तुम
मेरा प्यार, मेरी तड़प,
मेरे अहसास , मेरी बेचैनी को
तब ढूंढोगे बेताबी से मुझे
दोगे आवाज़ , पर….
पर नही पाओगे मुझे कहीं भी
जब थक जाओ मुझे पुकारकर
तब बैठ जाना लफ़्ज़ों की छांव मे
हां लफ़्ज़ों की छांव में …
तब मिलूंगी मैं तुम्हें
इन्ही लफ़्ज़ों में सिमटी हुई…
— प्रिया