संस्मरण

अतीत की अनुगूँज -12 : पूर्वाग्रहों के साथ-साथ

पिछले सत्तर वर्ष हमने देखे हैं।  हममे से कोई भी छाती पर हाथ धरकर यह नहीं कह सकता कि हमें होश संभालने के साथ साथ मुसलामानों, नौकरों, जमादारिन आदि के प्रति आदर सिखाया गया था।  ये बात और है कि वकील नियाज़ी साहब के आने पर पापा या बाबूजी अदब से खड़े होकर सलाम करते थे। और साथवाले खेत का मालिक जब ताज़ा सब्जी तोड़कर भरा टोकरा लेकर भेंट करता तो वह ज़मीन पर ही बैठकर अपने घर परिवार का दुखड़ा रोता। नियाज़ी साहब और यह किसान दोनों को उनके सामाजिक स्तर के अनुसार स्वीकार किया गया था न की धर्म के आधार पर। उस किसान की लडकियां हमारी सबसे नज़दीकी सहेलियां थीं। उन्हीं ने हमें कहना सिखाया था मुसलमान, बेईमान। और हम सब खेल खेल में मुक्तकंठ गाते थे मुसलमान बेईमान। एक दिन बड़ों ने सुना तो हमारी पीठ की खासी सिंकाई हुई। हमें इस तरह की शरारतें करते देख कर भी ”मियाँ” ने कभी मना नहीं किया। वह भी हँसते थे। उनका खेत हमारा चमन था। हरी मटर हो या कच्ची अम्बियां, गाजर हो या मूलियां, खूब खाते थे।

जैसे हमारे दिमाग में यह जुमला पैवस्त हुआ उसी तरह आज तक जितने मुस्लिम बन्दे मिले सबने ताना दिया कि हिन्दू घास पात खाते हैं और मैदाने जंग में हार जाते हैं। यहाँ इंग्लैंड में भी ऐसा हुआ। करीम नामक एक बारहवीं का छात्र मेरी कक्षा में बैठा चबड चबड बोले जा रहा था। मना करने पर झट बोला, ‘हू मेड यू ए टीचर ? यू हिन्दुस्  ईट ग्रास एंड हैव नो करेज।’ तभी एक अंग्रेज लड़का उससे बोला, ‘याह यू मुस्लिम्स ईट गोट एंड हैव ए गोट ब्रेन।’ बात कहकहों में डूब गयी। ऐसे पूर्वाग्रह हवा में तैरकर गुज़र जाते थे। कभी उनको किसी ने रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी में महत्त्व नहीं दिया।

एक बार दीवाली पर मियाँ की लड़कियों ने बताया कि अम्मा घरोंदा बनाती हैं। हमने भी उनसे ज़िद की कि घरोंदा बनाएंगे। ‘अम्मा’ ने चिकनी मिटटी और बांस की तीलियों से एक ओर दीवार के साथ घरोंदा बनाया जिसमे ऊपर जाने का जीना भी था, छज्जे के परकोटों पर उंगली भर चौड़े दिए बनाये। आंगन और तुलसी चौरा बनाया। वह तो मुसलमान थीं पर खुद के घर भी तुलसी का पौधा रखती थीं, ज़रा ऊंचे पर ताकि बकरी न खा जाये। शबरात वाले दिन एक लकड़ी के डिब्बे जैसा घर दीवार पर सजाती थीं और उसमे दिए जलाकर कुछ पढ़ती थीं। हमें इलायचीदाना खाने को देतीं थीं।
स्कूल में भी कई लडकियां मुस्लिम परिवारों से थीं। हमारी अध्यापिकाएं भी। कभी ऐसा नहीं लगा की वह हमसे अलग हैं।  मुझे याद है नारी शिक्षा निकेतन में छठी  कक्षा में मेरी क्लास की एक मुसलमान  लड़की ने संस्कृत में प्रथम स्थान पाया था। उसको सभी मन्त्र आते थे और वह कोई भी बात संस्कृत में कह सकती थी। उसके पिता एक मौलवी थे।
संगीत की कक्षा में सब बराबर से कृष्ण भक्ति के भजन गाती थीं।  मुझको नहीं याद आता की उस युग में कोई भी नाटक किसी मुसलमान शासक या हस्ती पर खेला  गया। सालाना समारोह में हमेशा कोई हिन्दू इतिहास का अध्याय होता था मगर किरदारों की अदायगी में सबको योग्यता के अनुसार चुना जाता था। पन्ना दाई के नाटक में पन्ना का रोल आईशा बाजी ने किया था। पन्ना ने अपने बेटे को राजकुमार उदय से बदल दिया था और जब आततायी आये तो उसका बेटा चन्दन  मारा गया। वह आततायी शायद मुग़ल थे। ठीक से याद नहीं।  मगर आईशा बाजी सचमुच में रो पडी थीं। हम सब उन आक्रमणकारियों से नाराज़ थे।
मुझे याद है दसवीं कक्षा में एक शादीशुदा लड़की दाखिल हुई। वह बेहद शांत और सुन्दर थी। बिंदी और सिन्दूर के अलावा उसके सिंगार में कोई अंतर नहीं होता था। दो चार दिन अलग थलग सी रही फिर वह मेरे निकट बैठने लगी। उसने बताया कि वह भेलूपुर में रहती थी। उसके मालिक को पढ़ाने का बहुत शौक था। अपना नाम उसने नुसरत जहाँ बताया। मेरी सहेली बन जाने पर वह मेरे आस पास रहने लगी। तिसपर कला मिश्रा नामक लड़की जो मुझे अपनी बहन बताती थी, खासी नाराज़ हो गयी। उसको मेरी नई सहेली से ईर्ष्या होने लगी। खाने की छुट्टी में सबके सामने उसने पूछा, उसके हाथ का बना खाओगी भी क्या ? मैंने टीचर जी से शिकायत कर दी। उसको सज़ा मिली।

अगले दिन मुझे नुसरत के सामने जाने में इतनी शर्म आ रही थी कि जब वह खुद हेलो बोली तो मेरे आंसू निकल पड़े। बड़ी मासूमियत से उसने कहा- हम तो रोज टिफिन में आलू पूरी ही लाते हैं। यह लगावट की पकाई महज़ १३ वर्ष की आयु में कब विकसित  हुई, पता नहीं चला। माँ के कानों तक सारा किस्सा पहुंचा तो वह बोलीं तुमने ठीक किया।
बड़े हो जाने पर बारहवीं क्लास में अनेकों मुस्लिम समुदाय की सहेलियां बनीं। इनमे शाहिदा  मेरी बहुत अभिन्न रहीं। ड्रामा अपना क्षेत्र था।  शाहिदा जाने कहाँ कहाँ से नाटक उठा लाती थी हर मौके हम तमाशा करते। एक खूसट से  मियाँ  जी और उनकी बेग़म की नोक झोंक वह खुद लिखकर ले आई थी जो हमने स्पोर्ट्स डे पर खुले मैदान में दर्शाया। मुश्किल ये थी कि गुट की सभी सखियाँ संगीत विभाग से जुडी थीं।  मगर शाहिदा न सितार, न तबला, ना गायन। मगर वह हमीं से चिपकी रहती। एक्टिंग जोरदार करती थी। उन दिनों बड़े त्योहारों पर स्कूलों में ड्रामा जरूर होता था। खासकर जन्माष्टमी  पर। शाहिदा बेचारी ने भी स्टेज पर जाने का पक्का मन बनाया। संवाद था ”नरकासुर वध”. इसी नाटिका में एक गोपिका नृत्य भी जोड़ दिया गया।
शाहिदा कृष्ण बनना चाह रही थी।  बोली देखो नाचना गाना तो हमें आता नहीं। अलबत्ता कृष्ण जी हमारी तरह काले थे सो तुम लोग दीदी जी से कहो हमें कृष्ण बना दें। दीदी जी थीं बंगालिन शुद्ध  ब्राह्मण। सोंच में पड़  गईं। शाहिदा का मुंह उतर गया। भरी आँखें लिए चुप मार गयी। फिर दीदी ने उसको बुलाया और कहा नाटक का प्रमुख पात्र राक्षस है तो तुम बनो तो राक्षस बन जाओ। क्योकि कृष्ण के लिए किसी को पहले ही चुन लिया था हमने। शाहिदा की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा।  हम सब भी खासे उछले कि अंततोगत्वा शाहिदा भी हमारे संग रहेगी।
ड्रामा शुरू हुआ। शाहिदा का भील किरात स्टाइल में बना, कौए के पंखों वाला सर का साज, खुले भुतहा बाल, मोटे मोटे गहने आदि, दिन में भी भयानक लग रहे थे। कृष्ण और सखियों का फ़िल्मी स्टाइल में चवन्नी वाली मटकियां सर पर रखकर नृत्य आदि सब सफलता पूर्वक मंचित हुआ। तभी नरकासुर का आक्रमण हुआ। काले  परिधानों में  उसकी सेना और गोप सखाओं का भीषण युद्ध हुआ। अहिल्या ने तबले पर समा बाँध दिया। दनदना दनदना दनदना ! और लो जी नरकासुर सिंह की दहाड़ मारता हुआ धराशायी हुआ। हमारी शाहिदा ऐसे गिरी कि जैसे  सचमुच वीरगति को प्राप्त हो गयी। बिलकुल स्टेज के आगे की तरफ।
मगर स्टेज का पर्दा था बाबा आदम के ज़माने का। वह भी डंडे वाला जो चिक के परदे की तरह लिपटा रहता है।   पट्टाक्षेप के समय एक ओर की रस्सी टूट गयी। दूसरी ओर की लड़की चिल्लाई जोर से खींच  न। जो उसने खींचा तो  पर्दा सीधा ही शाहिदा की ओर वायुवेग से गिरने लगा। सामने बैठी जूनियर स्कूल की बच्चियां चिल्लाईं, शाहिदा भाग, शाहिदा भाग ! और नरकासुर भाग गया। तालियां तो क्या ही  बजातीं, हंगामा हो गया। अंत में बड़ी दीदी ने स्थिति को संभाला। स्वयं स्टेज पर खड़ी होकर आश्वासन दिया कि शाहिदा ठीक है। आप लोग बैठ जाईये।

कहने की गरज़ ये कि हम हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के अंतर को ना जानते हुए भी पहचानते थे मगर हम  एकदम हमकदम थे, हमजोली थे। हम लड़ते थे खेलते थे गाते बजाते थे, गुड़ियों का ब्याह रचाते थे। दिवाली होली में संग जश्न मनाते थे। हमारा लेन देन का नाता था।  लंदन और अन्य देशों में भी यह व्यवहार कायम रहा है। मगर अब ये क्योंकर सियासत का शिकार हुआ जा रहा है, यह देखकर क्लेश होता है। इसे रोकना  हमारे ऊपर है।

अगले हफ्ते  मकर संक्रांति है।  पूरे भारत में पतंगें उड़ेंगी।  पतंग उड़ाना, कहते हैं, कृष्ण जी ने सिखाया था। मगर इस युग में पतंगें कौन बनाता है ? हमारे मुसलमान भाई !  लाहौर पीछे छूट गया मगर आज भी पकिस्तान में बसंत का मेला जोर शोर से लगता है और पतंगें उड़ाई जाती हैं। हमारे यहां भी बसंत पंचमी को पतंगें उड़ेंगी खासकर कृष्ण भूमि गुजरात में। इनसे मित्रता बरकरार रखें। खूब पतंगें उड़ाएं। यहां लंदन में भी अनेक पार्कों  में पतंगें उड़ाई जाएँगी। सारे शौक़ीन एकत्र होंगे, हिन्दू मुसलमान अंग्रेज ! सभी को  संक्रांति  और बसंत पंचमी की बधाई।

— कादम्बरी मेहरा

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल [email protected]