ग़ज़ल
सियासतों से सुधार नहीं होता।
इस पे अब ऐतबार नहीं होता।।
आदमी हो तो आदमी मानें,
नेता इंसाँ में शुमार नहीं होता।
पूँछ जिसकी है भीड़ की लंबी,
पूँछ जन – आधार नहीं होता।
दोमुहों के कान नहीं होते ,
दोमुहों से उद्धार नहीं होता।
उग आते हैं ख़जूर बीहड़ में,
औ’ ख़जूर छायादार नहीं होता।
कोई गाता हो भले फ़ागुन में,
फगुआ में मल्हार नहीं होता।
सियासत में रोटियाँ सिंकती हैं,
स्वार्थ जन – आहार नहीं होता।
फर्श से अर्श तक का सफ़र,
क्या भला यादगार नहीं होता?
यार खुदगर्ज़ ‘शुभम’ ने देखे,
कोई ऐसा बदकार नहीं होता।।
— डॉ.भगवत स्वरूप ‘शुभम’