निर्भया और स्वर्ग
निर्भया और स्वर्ग
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बादल बीच लगाकर सीढ़ी ,स्वर्ग द्वार खोला|
किरणों से ले ज्योति पुंज ,घर में अपार घोला|
स्वर्णिम आभा ले धरती पर स्वर्ग बसाया हमने –
पर हैवानों से जीवन का तार-तार डोला|
मैंने अपने सपनों को परवान चढ़ाया था|
अरमानों की लगा सीढियाँ स्वर्ग बसाया था|
बीच बैठ बादल के रथ पर जन्नत का सुख लूँ-
छूलूँ उड़ कर नील गगन को मन में आया था|
पर दो सीढ़ी चढ़ न सकी मैं ,खींचा सैय्यादों ने |
कुचला लूटा और जलाया ,मिल कर हैवानों ने|
खुला रहा जन्नत दरवाज़ा ,नर्क लेगया मुझको-
अरमानों का गला घोंट कर मारा मनुज़ादों ने|
मेरा दोष यही है इतना, मैं नर को जानती हूँ|
प्रीत लुटाती सुख बरसाती ,फिर क्यों दुख सहती हूँ|
स्वर्ग बसा आँखों में अपने,नर्क भोगती आयी-
नर को जीवन देकर भी,नर के हाथों मरती हूँ|
नाम निर्भया था मेरा,पर जी न सकी निर्भय हो|
रही बिलखती और चीखती, मार दिया निर्दय हो |
आत्मा मेरी भटक रही थी,आज मुक्त हो पाई-
न्याय तभी जब सभी निर्भया ,जीवन जिये अभय हो |
मंजूषा श्रीवास्तव’मृदुल’