कविता

खुद को स्वीकार करना 

जब तुम्हें तुम्हारे होने पर ही शक होने लगे

जब गम मुस्कुराये और खुशियां रोने लगे
जब  ईश्वर से तुम्हारा भरोसा खोने लगे
जब नींद जागे और ख्वाब तुम्हारे सोने लगे
जब आँखे खारे पानी से किनारे धोने लगे
ऐसे ही किसी एक पल में खुद को स्वीकार करना
अपने ना होने के ख्याल का बहिष्कार करना
हौले से मुस्कुराना अपने एक हाथ को
अपने ही दूसरे हाथ पर धीरे से रखना
और अपने सवाल का खुद जवाब बनना
औरत होने का भाव से खुद को कमजोर ना करना
मन के भाव छुपाकर खोखले शब्दों से शोर ना करना
हालातों के समंदर में पतवार बन जाना
नाजुक कली फूल नहीं पत्थर की दीवार बन जाना
औरत होना कमजोरी की निशानी नहीं
वो औरत ही क्या जिस औरत कीआंखों में
अपनेपन और ममता का पानी नहीं
तुम अपनी भावनाओं को असरदार करना
खुद अपने हाथों ना अपना तिरस्कार करना
और लोग तुमसे प्यार करे ना करे तुम खुद से
हद से भी ज्यादा बेहद से भी ज्यादा प्यार करना
कोई तुम्हें स्वीकारे या ना स्वीकारे तुम खुद को
खुद के लिए इस जमाने में स्वीकार करना
— आरती त्रिपाठी

आरती त्रिपाठी

जिला सीधी मध्यप्रदेश