संस्मरण

अतीत की अनुगूंज -14 : ईस्टर और मैं

इस देश में आई तो जनवरी का महीना था।  और दो महीने लगे घर ज़माने में।  एक कमरा और सांझी रसोई  . उसमे एक ही छोटी सी मेज़ जिसपर रोटी बेली जा सके। मैं अपना खाना बनाकर कमरे में ले जाती थी।  मकान मालकिन एक नाइजीरिया से आई नर्स थी। बेहद भली. . अक्सर मेरी देखभाल करती थी।  मई में मेरा प्रसव होना था।  मालुम नहीं कहाँ से सुन लिया था मैंने  ” ईस्टर एग्स ”के बारे में।  सोंचा मुझे भी उसके त्यौहार पर उसे कुछ देना चाहिए।  सो बाज़ार से दो दर्जन अंडे खरीदे और बड़े प्रेम से रसोई की सांझी मेज़ पर रख दिए।  सारा दिन वह पड़े रहे।  रात को मिसेज़ सोबो आईं और पूछा की यह अंडे किसलिए बाहर छोड़े हैं इनको अपनी अलमारी में रख लो वर्ना चूहे आ सकते हैं। मैंने कहा कि  यह आपके लिए हैं ईस्टर एग्स . बेचारी खूब जोर से हंस पडी. फिर उसने समझाया कि ईस्टर एग्स चॉकलेट से बने हुए खिलौने जैसे सजावट वाले अंडे होते हैं जो अलग दुकानों में मिलते हैं। मैं बेचारी सी उसका मुंह टापती विमूढ़ खड़ी रही।  उसने प्यार से कहा थैंक्यू  ,और अंडे स्वीकार कर लिए।
         और एक दशक गुजरा। जीवन तूफ़ान मेल की गति से बदलता गया।  मैं अध्यापिका बन गयी थी।  धीरे धीरे इस देश की संस्कृति मुझमे घुल रही थी। मैं चूंकि लखनऊ के आई टी कॉलिज से पढ़ी थी ,ईसाई धर्म का ज्ञान अच्छा था।  पांच से छह वर्ष के बालकों को ईस्टर की कलाकृतियां बनानी थीं ,कहानी सुनानी थी ,और एक सभा में सारे स्कूल के सामने गाने ,कविता पाठ आदि करवाने थे।  गुड फ्राइडे की छुट्टी हो जाती थी फिर तीन हफ्ते के बाद स्कूल खुलता था।  अतः  अध्यापिकाएँ  दो  हफ्ते पहले से तैयारी शुरू कर देती थीं।  उस बार ईस्टर असेंबली की मेरी बारी थी।  पहले ही दिन बच्चों को जीसस क्राइस्ट के सूली पर लटकाने और फिर तीसरे दिन पुनर्जीवित होने की घटना बताई।  एक चतुर बच्ची रोने लगी।  मैंने पूछा क्या हुआ वह बोली ,” माय ग्रांडफादर डाइड ,बट हे डिड  नॉट राइज अप।  आई सॉ हिज कॉफिन . इट डिड  नॉट ब्रेक ओपन। ” सो योर स्टोरी इस अ लाई।  ”
        अब मैं क्या करूं  ? बच्ची को बहला कर भुलावा देकर चुप करवा लिया।  अगले दिन ऑफिस में पेशी हुई।  बच्ची की माँ शिकायत ले आई कि मेरी बच्ची को अपसेट कर दिया।   उससे तो माफी मांग ली मगर उसके जाने के बाद प्रधान ने भाषण पिलाया . इतने छोटे बच्चों को यह सब नहीं समझ में आता है इसलिए हम स्कूलों में प्राइमरी सेक्टर में धार्मिक किंवदंतियां नहीं बताते हैं। ईस्टर चूँकि बसंत ऋतू का त्यौहार है इसको हम फूलों और पालतू पशुओं से जोड़कर  प्रकृति के नवजागरण का उत्सव मानते हैं।
          लंच टाइम में अन्य लोगों के क्लासरूम में झाँका तो अनेक छोटे मोटे खिलौने आदि बना रहे थे बच्चे।  कहीं थीम खरगोश थी तो कहीं चूज़े .और तमाम तरह के अंडे सजाये जा रहे थे।  कुकिंग में चॉकलेट चढ़ाकर केक बनाये जा रहे थे।  अब ध्यान लगाकर प्लान बनाया।  उसी दिन बच्चों से कहा एक एक खाली प्लास्टिक की बोतल ले आना। कोकाकोला पी कर  जो खाली हो वह ठीक रहेगी।    घर से राज माँ ले गयी।  बोतलों में मिटटी  भरी चार इंच तक। पानी डाला और एक राज माँ का दाना बो दिया।  यह हुआ विज्ञान का सबक। पारदर्शी बोतल  में बीजों का फूटना और रंग पकड़ना आदि देखा जा सकता है।  दो हफ्ते में  यह पौधे खासे बालिश्त  भर ऊंचे हो जाते हैं।  फिर बच्चे उनको घर ले जाते हैं जहां माँ बाप क्यारी में लगा देते हैं।  जैसे जैसे बीज के अवयव बनते जाते हैं ,अध्यापिका उनके नाम आदि सिखाती जाती है।
           कहानी सुनाई खरगोश और शेर की।  पंचतंत्र  की कोई किताब नहीं मिली उस लाइब्रेरी में अतः खुद बोर्ड पर तस्वीरें खींचीं . कहानी बच्चों को बेहद पसंद आई।  प्रधान ने सुझाया कि संगीत की शिक्षिका से गाने लिखवा लो और बच्चों को सिखाओ . सो वह भी सफलता पूर्वक हो गया।    क्राफ्ट में कार्ड से डोलचियाँ बनवा ली थीं। उनकी सज्जा भी सब बच्चों ने अपनी अपनी योग्यता के अनुसार कर डाली।  पतंगिया  कागज़ के फूल पत्तियां काटकर चिपका दीं डोलचियों पर। उनमे कैडबरी के अंडे रखे जाते हैं चॉकलेट से बने हुए।  आखिरी दिन यह डोलचियाँ बच्चे घर ले जाते हैं अपनी माँ के लिए।  इसी दौरान मार्च के तीसरे हफ्ते में मदर्स डे भी आता है। इसका आशय भी नवजन्म का उत्सव होता है।
           डोलचियों में रखने के लिए अण्डों की कल्पना मैंने अपने हिसाब से कर ली।  बादाम को पीसकर उसमे क्रीम और पीला रंग मिलाया। पश्चात उसकेमिश्रण से  कंचे के बराबर गोलियां बनाईं। एक ओर सूखे घिसे नारियल  को चाशनी में पागकर नारियल पाक बनाया।  जरा सूखने पर पीली गोलियों पर चढ़ाया जैसे हम कोफ्ते में किशमिश रखते हैं ,जब सब बन गए तो उनपर गरम चॉकलेट चढ़ाई।  यह सारा धंधा बच्चे ही करते हैं।  मेरी सहायिका चार चार के ग्रुप में उनको अलग ले बैठती थी और उन्हीं से बनवाती थी।  गरम करके चॉकलेट चढाने का काम अवश्य वह खुद करती थी।
          अब रह गया ड्रामा।   १९६२ में बनी मीना कुमारी और सुनील दत्त की फिल्म ” मैं चुप रहूंगी ”  में सब गानों को जोड़कर एक नाटिका बनाई गयी थी जो शेर और खरगोश की कहानी दर्शाती थी।  गानों के मुखड़े सभी याद थे मगर यह तो हिंदी में थे।   इनको अंग्रेजी में अनुवाद करके उन्हीं धुनों पर बैठाया , क्लास के सारे बच्चे ,तीस के तीस भाग ले रहे थे।  उत्साह और शोर की थाह  नहीं थी , धुनें सभी बेहद लोकप्रिय गानों की थीं अतः बच्चों को भी पसंद आईं।  संगीत की शिक्षिका को पता चला कि उसके बताये गाने स्टेज पर नहीं होंगे। तो वह  उत्सुकतावश देखने आ गयी।
अभी हमारी तैयारी कच्ची पक्की ही थी।  मगर धुनों ने उसको बाँध लिया।  खुद ही बोली   कि वह उनको पियानो पर बजा लेगी।  वाह ! सोने में सुहागा . शेर की ड्रेस भी मिल गयी। एक अंग्रेजी की बाल कथा है ,दी  लायन एंड दी विच एंड दी वार्डरॉब।  उसके कपड़ों से काम चल गया।  बाकी बच्चों ने कार्ड पेपर से मुखौटे बना लिए।  पंद्रह दिन तक हमने दिन और रात काम किया घर में भी चकल्लस चलती रही।  गुड फ्राइडे से दो दिन पहले बुधवार को हमारी सभा हुई।  हमारे चॉकलेट अंडे — हल्दीराम से बढ़िया ! कैडबरी तो कभी सोंच भी नहीं सकता था।  हमारी डोलचियाँ ,सबसे अधिक सुन्दर सजी हुई।  और हमारी नाटिका— अंग्रेजी में पंचतंत्र — बॉलीवुड स्टाइल ! कभी देखा ना सुना अभिभावकों ने।
        एक बच्चे की माँ  ने  एक डोलची सजाकर मुझको दी जिसमे उसने बादाम के नन्हें नन्हें फल बनाकर रखे थे। दुर्भाग्य से कुछ वर्ष पूर्व  वह स्त्री और उसका पति दोनों कैंसर की भेंट चढ़ गए। उनका बेटा  माइकल स्टीवेंस ,जहां भी हो उनका नाम रोशन करे।
नोट :– आज जब अंग्रेजी शिक्षा को अपने देश पर हावी होते देखती हूँ तो मेरा ह्रदय रोता है।  फिर भी यदि किसी अध्यापिका को अंग्रेजी में यह नाटिका करवानी हो तो मेरे पास इसका अनुवाद हाजिर है।

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल kadamehra@gmail.com