धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मनुष्य के पास अपने जीवनदाता परमेश्वर को जानने का भी समय नहीं है

ओ३म्

मनुष्य इस संसार में कहां से आया है उसे इसका ज्ञान नहीं है? सभी मनुष्यों की मृत्यु निश्चित है। मरने के बाद वह कहां जायेगा, इसका भी किसी मनुष्य को ज्ञान नहीं है? मनुष्य अपनी आंखों से इस संसार को देखता है। अपने माता, पिता परिवार के सदस्यों को भी देखता है। इस सब सृष्टि प्राणियों को किसने बनाया है, इसका तो विचार करता है और उसे इन प्रश्नों का ज्ञान है। वह इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर जानना भी नहीं चाहता। उसे यह भी पता नहीं कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है और आत्मा को अधिकतम सुख वा आनन्द किस प्रकार से प्राप्त हो सकता है? इसका एक ही कारण है कि मत-मतान्तरों तथा आधुनिक ज्ञान विज्ञान ने उसे भ्रमित कर दिया है। विज्ञान के पास भी इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर नहीं है। इस कारण विज्ञान व मत-मतान्तर मनुष्य को इन प्रश्नों से दूर रखना चाहते हैं और इसमें वह सफल भी हैं। इसके विपरीत वेद व वैदिक साहित्य में इन मौलिक प्रश्नों के यथार्थ उत्तर मिलते हैं जिनसे यह ज्ञात होता है कि मनुष्य का उद्देश्य धन कमाना व सुख प्राप्ति करना मात्र नहीं है अपितु आवश्यकता के अनुसार धनोपार्जन सहित शास्त्रों का अध्ययन करना, जीवन विषयक सभी प्रश्नों के उत्तर को जानना तथा अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए साधना व पुरुषार्थ करना उसे अभीष्ट है।

वेद आदि शास्त्रों के समान ही सत्यार्थप्रकाश भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें वेद की महत्ता का प्रतिपादन प्रमाणों सहित युक्ति तर्कों से किया गया है। हम संस्कृत का उपयुक्त ज्ञान रखने के कारण वेदादि ग्रन्थों का वैसा अध्ययन नहीं कर सकते जैसा कि सत्यार्थप्रकाश का कर सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश में मनुष्य के लिये आवश्यक जानने योग्य सभी प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। इसके लिये मनुष्य शरीरधारी प्राणियों को सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर जीवन विषयक सत्य ज्ञान रहस्यों को जानना चाहिये। जिन लोगों ने भी इस ग्रन्थ को पढ़ा है वह अन्यों की तुलना कहीं अधिक ज्ञानी होते हैं। उनकी तर्क शक्ति भी औरों से अधिक होती है। वह सत्य व असत्य के अन्तर को भली प्रकार से समझते हैं। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य ज्ञान से युक्त हो जाता है। वह सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करता व कर सकता है। सत्य व असत्य को जानना अलग बात है और उसे जीवन में अपनाना अर्थात् आचरण में लाना भिन्न बात है। बहुत से लोग सत्य को जानते हुए भी उसका आचरण नहीं करते। चोर जानता है कि चोरी करना गलत है परन्तु फिर भी करता है। असत्य व झूठ बोलना सभी अनुचित जानते व मानते हैं परन्तु फिर भी बहुत से लोग जानबूझकर स्वार्थवश असत्य का सहारा लेते हैं। यही कारण है कि न्यायालयों में किसी का बयान व साक्षी होती है तो उसे शपथपूर्वक कहना पड़ता है कि वह जो कहेगा वह सत्य कहेगा, सत्य के सिवा कुछ नहीं कहेगा। ऐसा होने पर भी बहुत से लोग न्याय के मन्दिर में भी असत्य बोलते हैं। राजनीतिक दलों से जुड़े लोग सीधी व सरल बात को भी घुमा फिराकर अपने हित को साधने के लिये उसके अनुसार वर्तते हैं। बहुत से लोग कुतर्क करते हैं। किसी से सत्य को स्वीकार कराना सरल बात नहीं है। अतः बहुत से वेदों के ज्ञानी भी अवसर पड़ने पर असत्य में झुक जाते हैं तथापि सत्य का सेवन करने से मनुष्य का यश बढ़ता है और उसका ज्ञान, शक्ति तथा प्रतिष्ठिा वृद्धि को प्राप्त होती है। अतः वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थों का सभी मनुष्यों को अध्ययन करना चाहिये और ईश्वर, जीवात्मा तथा मनुष्य जीवन विषयक रहस्यों को सत्यस्वरूप में जानना चाहिये तथा उसके अनुसार आचरण करना चाहिये। संसार में सबसे अधिक सुख सत्य ज्ञान की प्राप्ति पर होता है। धन से प्राप्त सुख ज्ञान से प्राप्त सुख से तुच्छ होता है। वस्तुतः ज्ञानी व्यक्ति अपनी बुद्धि और पुरुषार्थ से इच्छा वा आवश्यकतानुसार धन कमा सकता है।

संसार में हम देखते हैं कि माता पिता अपनी सन्तानों को वह शिक्षा देना चाहते हैं जिससे भविष्य में वह अधिक से अधिक धन कमायें। ऐसी शिक्षा हमारे अंग्रेजी स्कूलों में मिलती हैं जहां माता-पिता बहुत मोटी फीस देते हैं। वहां बच्चों को अंग्रेजी सहित हिन्दी व किसी क्षेत्रीय भाषा का सतही ज्ञान कराया जाता है और शेष विषयों में उसे हिन्दी, अंग्रेजी व क्षेत्रीय भाषाओं सहित सामाजिक ज्ञान, कला, विज्ञान, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, प्रबन्धन आदि का ज्ञान कराया जाता है। इस सारी शिक्षा पद्धति व व्यवस्था में इस जगत की उत्पत्ति, वेद या ज्ञान की उत्पत्ति, सृष्टि का इतिहास, मृत्यु-जन्म-पुनर्जन्म, बन्धन व मोक्ष, दुःख व सुख का स्वरूप व उसके कारण, कर्म-फल सिद्धान्त, माता-पिता तथा आचार्यों का जीवन में महत्व एवं योगदान तथा हमारे उनके प्रति कर्तव्यों का ज्ञान नहीं कराया जाता। यह कितना आश्चर्यजनक है कि धन कमाने के लिये मनुष्य अपना सारा जीवन लगा देता है और इन्द्रिय सुख व भोगों को भोगता हुआ रोगी होकर अल्प आयु में मर जाता है। उसे इस सृष्टि के रचयिता तथा मनुष्यों के जन्मदाता, पालनकर्ता, सृष्टि के संचालक, रचयिता और प्रलयकर्ता तथा मनुष्य के देश, समाज व ईश्वर के प्रति कर्तव्यों का ज्ञान नहीं कराया जाता। यह आधुनिक शिक्षा की बहुत बड़ी कमी है। इसे दूर करने की ओर किसी का ध्यान नहीं है। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली इसका अपवाद है परन्तु उनकी अवस्था आर्थिक तथा समाज में उपयोगिता की दृष्टि से दयनीय एवं उपेक्षणीय है।

भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष वा सेकुलर देश में आध्यात्मिक ज्ञान व शिक्षा का उपहास व विरोध किया जाता है। कुछ राजनीतिक दल ऐसे हैं जिन्होंने देश के लोगों को भ्रमित कर रखा है। वह नहीं चाहते कि देश के लोगों के सामने सत्य आये। यदि ऐसा होता है तो इससे उनके स्वार्थों की पूर्ति में बाधा पहुंचेगी। अतः सामाजिक संस्थाओं मुख्यतः आर्यसमाज का कर्तव्य है कि वह शिथिलता और निराशा का त्याग कर, परस्पर संगठित होकर तथा प्रलोभनों व स्वार्थों से दूर रहकर अपनी पूरी शक्ति व सामथ्र्य से वेद, धर्म, संस्कृति, आध्यात्मिक शिक्षा, प्राचीन सत्य इतिहास, सदाचार, सन्ध्या, अग्निहोत्र यज्ञ, योग एवं प्राणायाम आदि का विश्व में प्रचार करे। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो सृष्टि के आरम्भ से प्रवृत्त सनातन वैदिक धर्म विलुप्त हो जायेगा और आने वाले समय में इसका स्थान विदेशी मत-मतान्तर ले लेंगे जिसके लिये वह कुछ शताब्दियों से संगठित रूप से अपनी पूरी शक्ति सहित लगे हुए हैं। उनकी सफलता हमारी विखरी हुए असंगठित दुर्बल शक्ति तथा प्रचार में शिथिलता में छिपी हुई है। हम भावी खतरों से असावधान है। संसार के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के समय पूरा विश्व आर्य विचारधारा का था। आज क्या स्थिति है? आर्य-विचाराधारा के लोग सौ प्रतिशत से लगभग 15 या 20 प्रतिशत पर गये हैं अथवा इससे भी कम है। इसमें अन्धविश्वासों व पाखण्डों को मानने वाले हमारे बन्धु भी सम्मिलित हैं। इसका एकमात्र व प्रमुख कारण आर्य-हिन्दू जाति का वेदों से विमुख होना तथा मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, अवतारवाद, जन्मना जाति व्यवस्था, छुआछूत तथा अन्धविश्वासों एवं पाखण्डों से ग्रस्त होने सहित इन दोषों से मुक्त होने के लिये इनके सत्यस्वरूप को जानने व इन्हें छोड़ने के लिये प्रयास न करना है।

आज संसार के प्रायः सभी मनुष्य ईश्वर की सच्ची उपासना से दूर है। ईश्वर की सच्ची उपासना के लिये प्रथम कर्तव्य ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप सहित जड़ प्रकृति व सृष्टि को यथार्थरूप में जानना है। यह ज्ञान हमें वेद, उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों से होता है। ईश्वर की उपासना ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर उसका ध्यान करना तथा समुद्र या जलाशय में गोता लगाने की भांति सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी तथा सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर में गोता लगाना अर्थात् लम्बी अवधि के लिये ध्यान मग्न होना है। इससे मनुष्य की आत्मा के सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यस्न व दुःख दूर होते हैं तथा कल्याणकारी गुण-कर्म-स्वभाव की प्राप्ति होती है। ईश्वर के सत्यस्वरूप का का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार होता है। सभी बन्धन टूट जाते हैं और जन्म व मरण से अवकाश मिलता है। आत्मा ईश्वर के सान्निध्य को प्राप्त कर परमानन्द का भोग करती है। यही जीवात्मा का लक्ष्य है। यही जीवात्मा के प्राप्तव्य की स्थिति है। जो मनुष्य ईश्वर की वेद विधि से उपासना नहीं करते उनका मनुष्य जन्म वृथा हो जाता है। अतः मनुष्य को इन सब बातों पर विचार करना चाहिये। आवश्यकता के अनुसार धन का होना आवश्यक है परन्तु आवश्यकता से अधिक धन हमारे नाश का कारण हो सकता है। धन की तीन ही गतियां होती हैं। 1-भोग, 2-दान तथा 3-नाश। वेदों में सन्देश है कि मनुष्य को त्यागपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिये। यह धन मनुष्य का नहीं अपितु संसार के स्रष्टा का है। यह साथ जाने वाला भी नहीं है। मरने पर यहीं छूट जाता है। धन कमाने में मनुष्य जो पाप करता है उसका परिणाम मरने के बाद भी नीच योनियों में जन्म लेकर दुःखों के रूप में भोगना पड़ता है। उसका कब उद्धार होगा या नहीं होगा, यह ज्ञानियों विद्वानों द्वारा भी अनुमान नहीं किया जा सकता जबकि सद्ज्ञान को प्राप्त होकर ईश्वर की शरण में जाने से मनुष्यों का सर्वविद्ध कल्याण होना निश्चित होता है। अतः सबको सत्यार्थप्रकाश वेद का अध्ययन कर ईश्वर की शरण में जाना चाहिये। यही परम कल्याण का मार्ग है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य