गीतिका/ग़ज़ल

गीतिका

अजीब सी दोराहे पर खड़ी है ज़िदगी।
थकी है ..आगे जाने को अड़ी है ज़िंदगी।।
है राह में न रौशनी, न हाथ में मशाल है
पर हर अधेंरी मोड़ पर लड़ी है ज़िंदगी ।।
जितना दिया है हमनें  इस जहान में कभी
मिलेगा वहीं हाथ .. ये कड़ी है ज़िंदगी।।
दुआ में माँग ली थी माँ के पाँव की जमीं
मिला सुकून वहींं … वहीं पड़ी है ज़िदगी ।।
भीगे हो आँख, होठ पर मुस्कान सजा लो
जियोगे इस तरह तो फिर बड़ी है ज़िंदगी।।
— साधना सिंह 

साधना सिंह

मै साधना सिंह, युपी के एक शहर गोरखपुर से हु । लिखने का शौक कॉलेज से ही था । मै किसी भी विधा से अनभिज्ञ हु बस अपने एहसास कागज पर उतार देती हु । कुछ पंक्तियो मे - छंदमुक्त हो या छंदबध मुझे क्या पता ये पंक्तिया बस एहसास है तुम्हारे होने का तुम्हे खोने का कोई एहसास जब जेहन मे संवरता है वही शब्द बन कर कागज पर निखरता है । धन्यवाद :)