कहानी

सिमरन

आज हरीश बाबू को सिमरन की बहुत याद आ रही थी, कितनी मासूम और चंचल थी वह।थोड़े से समय में ही तो वह सबकी चहेती हो गई थी।हरीश बाबू को उससे बहुत ज्यादा लगाव हो गया था।वे अपने बगीचे के लॉन में उसके साथ खेलते रहते।कब समय कट जाता था,पता ही नहीं चलता ।जब वे लॉन में कुर्सी लगाकर अखबार पढ़ रहे होते थे तब वह उनके पास ही आकर बैठ जाया करती थी।कभी-कभी तो हरीश बाबू की पत्नी सविता बनावटी गुस्सा प्रदर्शित करते हुए कह दिया करती थी कि-” बस,अब तो सिमरन ही आपकी सब कुछ हो गई है, हम लोगों से तो जैसे कोई रिश्ता-नाता ही नहीं रहा।” और सिमरन मुँह उठाकर मासूमियत से सविता की ओर देखने लगती।
हरीश बाबू भी चिढ़ाने के अंदाज में बोल देते -” हाँ भाई,अब सिमरन ही तो हमारी सब कुछ है।जितना समय वह मुझे देती है, उतना तो तुम भी नहीं देती हो।देखो,मुझसे वह कितना चिपट कर बैठी है।तुम शायद इसीलिए खार खाए बैठी हो।लेकिन इतना भी मत जला-भूना करो।यह तो वैसे भी बहुत मासूम और नटखट है।अब इनका तो ये है कि जहाँ भी प्यार-दुलार मिले,उन्हीं के हो जाते हैं।”
“हाँ,आप सही कह रहे हैं।अब अपना घर-संसार तो यही है।जब से सिमरन घर में आई है,अपना समय ऐसे ही कट जाता है, पता ही नहीं चलता है।वरना तो पहले मनहूसियत सी छाई रहती थी।”तब सविता ने भी अपने मन की बात कही थी।
“सविता,वास्तव में भरा-पूरा घर ही अच्छा लगता है।पहले हम संयुक्त परिवार में रहते थे तब जीने के प्रति कितना उत्साह-उमंग हुआ करती थी और अब यह खाली-खाली घर खाने को दौड़ता है।बच्चे अपने साथ ही होते हैं तब घर-संसार स्वर्ग सा लगता है।लेकिन बच्चे भी क्या करें, उनकी अपनी मजबूरी है, वे अपने नौकरी-धंधे में लगे हैं।वह तो अच्छा है कि कभी तीज-त्यौहार पर वे लोग आ जाते हैं और कभी हम लोग वहाँ चले जाते हैं।अन्यथा जीवन में इतनी दुश्वारियाँ हैं कि जीना दूभर हो जाए।”
हरीश बाबू की बातें सुनकर सविता की आँखें नम हो गई और वह कुछ नहीं बोली।हरीश बाबू ने बात की गंभीरता को समझ लिया और तत्काल ही बात पलटते हुए फिर से सिमरन का ही जिक्र छेड़ दिया।हालांकि सविता सिमरन के बारे में ज्यादा बात करने के मूड में नहीं थी और इसीलिए लॉन में से उठकर घर के अंदर जाने का बहाना ढ़ूंढने लगी और उठ खड़ी हुई। जितना लगाव सिमरन से हरीश बाबू को था,उतना ही सविता को भी था।सिमरन को वह प्यार से सिमी कहकर ही बुलाती थी।सुबह -सवेरे जल्दी उठकर जब वह सिमी को आवाज लगाती तो दौड़कर उसके पैरों में झूम जाती थी।सिमी के जाने के बाद से उसने सोच रखा था कि अब वह और किसी के माया-मोह के बंधन में नहीं पड़ेगी।
हरीश बाबू ने ही सविता की विचार श्रंखला भंग की। उन्हें फिर से बैठने का बोलते हुए वे बोले-” सविता, सिमरन का अचानक बीमार हो जाना मन को कचोटता है।वह एक दिन पहले तक तो पूरी तरह से स्वस्थ्य थी।अगले दिन सुबह थोड़ा सुस्त दिखाई दी और फिर कुछ ही देर में दो-तीन उल्टियाँ कर दी।तभी अपनी चिंता बढ़ गई थी और जब उल्टी के साथ दस्त भी शुरू हो गए और उसमें भी वमन हरा मटमैला तो घबराहट होना स्वाभाविक थी।डॉक्टर ने भी तो कहा था कि फूड पाइजनिंग का मामला लगता है।हम लोग समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर उसने क्या खा लिया।”
“हाँ,वह दौर याद आता है तो सिहर जाते हैं।वैसे भी उसके खानपान का मुझसे ज्यादा तो आप ही ध्यान रखते थे।अपने सामने ही खिलाते-पिलाते थे।मुझे तो लगता है कि डॉक्टर उसकी बीमारी को समझ ही नहीं पाए,वरना तो आप दिन-रात उसकी सेवा में लगे ही रहते थे।उल्टी-दस्त से वह कमजोर होती चली गई और जब अस्पताल ले जाने की स्थिति में वह नहीं रही तब भी आप डॉक्टर को घर पर लेकर आते थे।मुझे तब की एक-एक बातें याद हैं।”
“यह बात तो ठीक है लेकिन जब उसका नीचला हिस्सा पैरालाइज्ड हो गया और पन्द्रह-बीस दिन गुजर जाने के बाद भी उसके ठीक होने के लक्षण नहीं दिखाई दे रहे थे तब डॉक्टर ने भी हाथ ऊँचे कर दिए और कह दिया था कि अब इसके बचने की कोई संभावना नहीं है।तब भी हम लोग आशान्वित थे कि ईश्वर कोई चमत्कार करेगा और सिमी ठीक हो जाएगी।जिस हाल में भी वह रहेगी,हम उसे रखेंगे।मुझे याद है कि तुमने काँच की बॉटल और उसमें बिटनी लगाकर दूध पिलाने की कोशिश की थी।बाद में तो मैं इंजेक्शन से ही दूध उसके मुँह में डालता था,बिस्किट का चूरा उसके मुँह में डालकर खिलाने की नाकाम कोशिश करता और उस दौरान वह कैसे टुकूर-टुकूर जीवन की आस लिए आशाभरी नजरों से देखती थी।वे क्षण और वह दृष्य आज भी मेरी आँखों के सामने आ जाता है।”
“सिमरन भी तो शायद जाना नहीं चाहती थी तभी तो रोजाना ही हमें लगता कि अब उसकी सांसे बंद होने वाली है… और वह जी उठती….जहाँ उसके पास जाते…या तो उसकी सांसे बहुत तेज हो जाती या बिल्कुल धीमी पड़ जाती या फिर उखड़ने लगती और हम सोचते कि हो न हो आज उसका आखिरी दिन है,लगता कि बस अब यह कुछ ही पल की मेहमान है।मैंने कई बार देखा था कि उस अवस्था में आप अपना मुँह फेर लेते थे जब आपकी आँखों से आँसू झरने लगते थे और आप कोशिश करते थे कि कोई देख न ले।”सविता ने भरी आँखों से अपनी बात कही।
“उससे हम लोगों का कितना लगाव हो गया था।उसके बिछोह के ख्याल मात्र से मैं सिहर उठता था।”
“सच कहा आपने।वह मासूम भी उस त्रासदायी अवस्था में बस हमें देखती रहती थी।कभी हिम्मत करके थोड़ा सा सिर उठा लेती थी…लगता कि वह उठकर आपके पास दौड़ी चली आएगी।मुझे स्मरण आ रहा है कि जब आपके मित्र सुरेश एक दिन घर आए थे और आप उल्टी और दस्त के कारण फैली गंदगी और सिमी की सफाई कर रहे थे तब उन्होंने आपसे यह कह दिया था कि इसकी इतनी तीमारदारी से तो बेहतर है कि यहीं रेल्वे के किनारे कहीं डाल आते।हम तो जानवरों को ऐसे ही फैंक आते हैं।इनसे क्या माया-मोह रखना। इतना सुनते ही आप कितना भड़क गए थे।और उन्हें घर से जाने तक का कह दिया था और बाद में उनसे सम्बन्ध भी तोड़ लिए थे।”
“ऐसे लोग भावना शुन्य होते हैं, संवेदनहीन!”हरीश बाबू ने भावुक होते हुए कहा।
“उस समय तो ऐसा लग रहा था कि आप ईश्वर से लड़ाई करके भी उसे किसी तरह बचा लेना चाहते थे।”
हाँ सविता, वह तो अच्छा हुआ कि उसका त्रास जब मुझसे देखा नहीं गया और समझ में भी आ गया कि उसका ठीक होना संभव नहीं है, उस समय तुमने कहा था कि सिमी की मुक्ति के लिए आप भगवान से एकादशी के व्रत की मानता कर लो,शायद उसके प्राण आपमें ही अटके हों और वही उसकी मुक्ति में बाधक बन रहे हों।तब मैंने इन बातों पर विश्वास न होने के बावजूद उसके त्रास और तड़प को देखते हुए सुबह पूजा के समय इस बात की मानता कर ली और पूजा के बाद जब उसे इंजेक्शन से दूध मुँह में डालने पहुँचा तबतक उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे।वाकई सविता सिमी आज भी बहुत याद आती है लेकिन एक बात तुम्हें मैंने आज तक नहीं बताई और यह अपराध बोध मुझे आज भी सालता रहता है। तुम्हें याद होगा कि उस दौरान हमने अपने घर में पेस्ट कंट्रोल करवाया था।हालांकि तुमने मना किया था और कहा भी था कि जीव हत्या का पाप हम क्यों मोल लें।मुझे लगता है कि पेस्ट कंट्रोल वालों ने किचन और अन्य कमरों में चूहों को मारने के लिए जो टिकियाँ रखी थीं,उनमें से ही कोई सिमरन ने खा ली होगी और उसी का जहर उसके शरीर में फैल गया होगा।जरा सी लापरवाही से हमने अपनी प्यारी कुतिया सिमरन को खो दिया।”
हरीश बाबू की बात सुनकर सविता स्तब्ध थी और निःशब्द भी।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009