ग़ज़ल
रिन्दों के मुँह पे देखकर ताले पड़े हुए
आँसू बहा रहे हैं प्याले पड़े हुए
ज़रूरतें कानों में आ के रोज़ कहती हैं
थोड़े से सिक्के तू भी उठा ले पड़े हुए
है सबसे तेज़ नज़रें भूख की यहां जिसे
दिख जाते हैं कूड़े में निवाले पड़े हुए
रोता है बागबान भी गुलशन के हाल पर
वो धूप है कि फूल हैं काले पड़े हुए
चिथड़े मयस्सर नहीं तन ढकने को कहीं
दिखते कहीं लाशों पे दुशाले पड़े हुए
तीरगी बहुत है टटोलो यहीं – कहीं
मिल जाएंगे कुछ ज़ख्मी उजाले पड़े हुए
तेरी हिफाज़त क्या करेंगे वो ‘भरत’
जिनको खुद हैं जान के लाले पड़े हुए
— भरत मल्होत्रा