कविता

यह वक़्त नहीं है सिर्फ़ लोकडाउन का

यह वक़्त नहीं है सिर्फ़ लोकडाउन का….
यह वक़्त है ख़ुद से ख़ुद को मिलने का

रोज़ की भाग-दौड़ में सोचता था…
कभी वक़्त मिला तो यह करूँगा…वोह करूँगा,
अब आ गया है वक़्त लोकडाउन के रूप में
और कहता है मुझ से, ख़ुद से तो एक मुलाक़ात कर।

जो किया नहीं वो काज कर…

मन के सपने साज कर…
फिर ना होगा लोकडाउन का एक्सटेंशन
अब तो क्लियर कर अपने इंटेंशन।

उठा ले क़लम कोई नई बात कर…
ज़िन्दा कर काग़ज़ के सफ़ेद पन्नों को,

इंद्रधनुष के रंग भर कर।

क्यों न हाथ आज़मालें, आज किचन में…
ना जाने क्या आविष्कार हो जाये बात-बात में।

क्यों न उनसे नज़रें चार कर…
फिर से कह दे “आई लव यू” और दिल बेक़रार कर।

बाहर नहीं जा सकता तो क्या…
अपने भीतर चला जा
जिसे ढूंढ रहा था, ना जाने कब से
उस ख़ास इन्सान से मुलाक़ात कर आ।

सिखलाया इन चन्द दिनों के लोकडाउन ने
जी लें ज़िन्दगी इस पल में…
क्योंकि फिर तो कल सब बदल जायेगा
जब ये बादल छंट जायेगा।

यह वक़्त नहीं है सिर्फ़ लोकडाउन का…
यह वक़्त है ख़ुद से ख़ुद को मिलने का।

— दीपिका अग्रवाल