इतिहास

विपिन बिहारी की कहानी *कंधा* की पुनर्समीक्षा

विपिन बिहारी की कहानी ‘कन्धा’सब से पहले ‘माझी जनता’ (सम्पादक कँवल भारती) के 30 जुलाई,2000 के अंक में छपी थी।यह कहानी बिहार की जमींदारी- व्यवस्था की पृष्ठभूमि में लिखी गई है।भारत के कई राज्यों में 1950 का जमींदारी कानून लागू हुए और भूमि- व्यवस्था में सुधार किए गए,किंतु बिहार में ये कानून लागू नहीं हो सके।दूसरी तरफ उ प्र और बिहार राज्य गोबर पट्टी'(cow Belt) यानी पुराणपंथ के गढ़ भी बने हुए हैं। बिहार में जमींदारी -व्यवस्था के तहत दलितों का भयानक शोषण व दमन होता है। दलितों द्वारा शोषण और अत्याचार का हल्का सा विरोध कर ने पर जमींदार प्रशासन से साँठगाँठ का उन्हें ‘नक्सलाइट’ घोषित करवा कर मरवा दिया जाता है अथवा उन की ‘भूमि-सेनाएँ ‘ सामूहिक नर संहार को अंजाम देती हैं।इस तरह हर तरफ से दलित को ही क्षति उठानी पड़ती है।दलित जमींदारों की ‘बेगार या बन्धुआ मज़दूरी’ की व्यवस्था के जुएँ के तहत पिसते रहते हैं और विरोध कर ने पर उपर्युक्त तरीकों से खत्म कर दिए जाते हैं। पहले दलित को बन्धुआ मज़दूर बनाया जाता है,फिर उस के कंधे पर जमींदार अपनी बंदूक रख कर उसे दलितों से ‘बेगार’ करवाने के लिए इस्तेमाल करता है और बग़ावत कर ने पर प्रशासन से मिल कर ‘नक्सली’ करार दे कर मरवा दिया जाता है।कहानी ‘कन्धा’ इसी रहस्य को उजागर करती है कि कैसे दलित ही दलित के ख़िलाफ़ जमींदार का औज़ार बनने और इनकार कर ने पर मरने को अभिशप्त है।
सकलदेव बाबू उर्फ़ गऊआ गाँव का जमींदार है जो गाँव-जँवार का आतंक बन गया है।मज़दूर अशरफी का बेटा बरता पैदा होते ही जमींदार गऊआ की गोद में डाल दिया गया है या गिरवी रख दिया गया है अथवा वे हालात जो एक मज़दूर के होते हैं।बरता को अपने बचपन की यह स्थिति याद नहीं है।वह छुटपन से ही गऊआ की के टुकड़े पर पला -बढ़ा है और बड़ा होने पर गऊआ की बंदूक को ढोने वाला ‘कन्धा’बन कर अपने ही वर्ग दलितों-गरीबों के ख़िलाफ़ औज़ार बन जाता है।गऊआ बरता को खुराकी और कपड़े-लत्ते के बदले अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ तरह -तरह से इस्तेमाल करता है।चाहे आर्थिक रूप से ग़ुलाम दलित मजदूरों से बेगार(बिना पारिश्रमिक के काम करवाना) करवाना हो या बेगार करने से इनकार कर ने पर पिटवाना हो ,प्रतिपक्षियों और दुश्मनों से मोर्चा लेना हो अथवा गऊआ के रण्डीखाने जाने पर उस की जान की हिफाजत करनी हो या औरत की ज़रूरत पड़ने पर बरता के द्वारा किसी गरीब घर की औरत को उठवा लेना हो,आदि सभी तरह के पाप-पुण्य में बरता गऊआ का ‘कन्धा’बना हुआ है।लेकिन एक दिन परिस्थितिवश घटी घटना ने न केवल बरता की आँखें खोल दी बल्कि उस को वास्तविकता से परिचित कराते हुए उस के जीवन की दिशा ही बदल दी।जो बरता एक समय में गऊआ के लिए मरने-मारने और उस के कहने पर फाँसी तक चढ़ने को तैयार था और गऊआ भी उसे अपना ‘दुलारा पूत’ मानता था और यहाँ तक कि अपनी बेटी निर्मलवा से उस के सम्बन्धों की भी अनदेखी करता था, इस घटना ने दोनों की घनिष्ठता को चीर और दो फाड़ कर दुश्मनी में बदल दिया था।घटना यों थी कि सहदेव के बेगार करने से मना कर ने पर बरत ने बंदूक की बट से सहदेव के कपार पर बजोड़ दिया था।बट लगते ही सहदेव गिर पड़ा था।फिर लात-घूँसों से पीटने लगा था अन्धाधुन्ध।पूरा टोला जमा हो गया था।डर से टोले वाले कुछ नहीं बोल रहे थे।लेकिन इतना ज़रूर फुसफुसा रहे थे,”इ कैसा निकल गया रहे।गऊआ की नमकहलाली का मतलब ये नहीं कि अपने ही लोगों को कसइया की तरह पीटो।जात के लिए लोग क्या नहीं करते।लेकिन इ तो जात का ही दुश्मन बन गया है।देखना बरत,जात को सता कर कभी चैन से नहीं रह पाओगे।तुम्हें भी एक दिन ऐसे ही पिटना पड़ेगा।जिस का काम करते हो ,वही एक दिन तुम्हें भी पीटेगा और बचाने कोई नहीं आएगा।”बरत ने फुसफुसाहट सुन ली थी,लेकिन उत्तेजना वश बात की गहराई में नहीं जा सका था। “गऊआ को भजेगा क्यों नहीं,बेटी दे दी,खाना-खुराकी देता है।अरे,गऊआ का दामाद बन जाओ तब न जाने।साला यही सब से तो अपनों का दुश्मन बन गया है।कल बाप को भी पीटेगा,इसी तरह कलटा-कलटा कर।बड़े आदमी का बड़ा दिमाग..कैसे वश में हो सकता है एकयोद्धा, इ तो गऊआ ही जानता है।”
इस के बाद बरत ने गऊआ की बंदूक का “‘कन्धा’बन कर ढोने से मना कर दिया।उस से अब यह नहीं होगा।”जो कहा गऊआ ने हुक्म बजाया उस ने।लेकिन अपने ही लोगों को पीटना-सताना।आज तक तो उस के लोग ही पिटते रहे हैं उस से,अपनी जात वालों को पीटने के लिए नहीं कहा कभी गऊआ ने।अपने लोगों को वह अब कभी नहीं पीटेगा मालिक के इशारे पर।जब कमाना-खाना ही है तो गऊआ के पास ही क्यों कमाएँगे,.? कमाने वाले का कहीं भी पेट भर सकता है।कोढ़ी-लूले सोचे।गऊआ ने दिया है ही क्या आज तक।खाना-खुराक,कपड़ा-लत्ता,लेकिन उस के बदले क्या नहीं करवाया गया उससे।”गऊआ ने बरत पर हाथ उठा दिया था।बरत ने झट से हाथ थाम लिया।विद्रोह का बिगुल बज गया।बरत ने नया गिरोह बना लिया,इस के पहले बरत ने गऊआ के नेतृत्व में फुट डाल दी, क्यों कि उस गिरोह के अधिकांश लोग बरत के ही जात-वर्ग के थे।गऊआ को महसूस हुआ कि बरत के रूप में उस का ही जूता उसी के सर पर पड़ गया था।पटखनी दे दी सरेआम।सांप को दूध पिलाते रहे सालों।थाना-पुलिस करने लगे गऊआ।बरता नक्सलाइट हो गया है।उसे वश में कीजिये ,नहीं तो कल सब की नाक में दम कर लेगा।दलित माने नक्सलाइट।बरता फरार हो गया।गऊआ के नक्सलाइट कहने पर बरत ने अपने को नक्सलाइट ही समझ लिया।गऊआ और बरत की टकराहट का नतीजा यह हुआ कि गऊआ की पाँच बीघे की फसल काट ली गई।खियाहट में गऊआ ने दलितों पर हमला बोलवा दिया जिस में मारे गए आठ आदमी बेकसूर दलित थे।खून के बदले खून की कार्यवाही में गऊआ तो बच गए लेकिन उस के आदमी धरा गए और बरत के गिरोह ने दर्जन भर मार कर अपना गुस्सा शांत किया जिस में बेकसूर ही ज्यादा थे।
इस तरह यह कहानी जमींदार -वर्ग कैसे दलित-बन्धुआ मजदूर को अपनी बंदूक का ‘कन्धा’बना कर उस के ही वर्ग के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करता है और ‘कन्धा'(हथकंडा)बनने से इनकार करने पर उसे नक्सली बनने को मजबूर किया जाता है और जमींदार और दलित के संघर्ष में दोनों तरफ के निर्दोष मारे जाते हैं,इस तथ्य को बड़े मार्मिक ढंग से उजागर करती है।
कहानी का कथ्य और शिल्प बड़ा प्रभावशाली बन सका है क्यों कि गँवई भाषा और शैली को बहुत ही व्यंजक व सादगी के साथ प्रयुक्त किया गया है।

— सुभाष चन्द्र

सुभाष चन्द्र

शोध छात्र हिन्दी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज - 211002. संपर्क - 6392798774,9532188761 ईमेल - subhashgautam711@gmail.com