लघुकथा

पिछड़ी सोच

रमा तुम्हें शर्म नहीं आतीं, तुम मेरी बहन से मुकाबला करोगी। वह बड़े-बड़े अखबारों के लिए चित्र बनाती हैं। तुम खुश होने की बजाय, उसके चित्रों में कमियाँ निकाल रही हो। तुम तो कहती थी।तुम उसके काम में बहुत सहयोग करती हो। यही है तुम्हारा सहयोग। धिक्कार हैं ? तुम्हारी सोच पर।
ऐसा मैंने क्या कह दिया ? जो ये मुझ पर इतना भड़क रहे हैं। बस इतनी सी चाह ही तो कि थी, मैंने भी पत्र-पत्रिकाओं के लिए चित्र बनाऊँ, तो इसमें गलत क्या था?
कहीं कल की बात तो नहीं चुभ गई उन्हें । हाँ हो सकता हैं, कल ही तो कह रहे थे। रमा मैं नहीं चाहता, कोई मेरी बहन से आगे निकले। तुम तो जानती हो कि वो कितनी मेहनत करती हैं, रात -दिन। वो मेरी अपनी बहन हैं, कोई ग़ैर नहीं। मैंने तो इतना ही कहा था, तो क्या मैं पराई हूँ।
तुम्हारी और बात है। वह मन ही मन सोच रहीं थीं। मेरी और बात है ये कैसी पिछड़ी सोच हैं, इनकी। क्या अभी तक मेरा कोई अस्तित्व नहीं है?

— राकेश कुमार तगाला

राकेश कुमार तगाला

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