सामाजिक

झूम के आना रे मानसून तू अबकी बार…

मीलो लंबी लगने वाली तपती दोपहरी के बाद जब आसमान में मेघ छाते है तो मानसून की दस्तक से मन भीगने लगता है। बारिश की बूंदे जैसे ही धरती पर पड़ती है , मिट्टी में घुलकर एक सोंधी सी खुशबू में तब्दील हो जाती है, पेड़-पौधे खिल उठते है। आसमान में सतरंगी इन्द्रधनुष मुस्कराने लगता है। मानसून का आना जैसै जीवन का आना बन जाता है…।
‘मानसून’ सुनते ही मन मचल-मचल जाता है । बारिश बहुत से लोगों का पसंदीदा मौसम होता है।जब-जब गर्मी का पारा 45 -47 तक जाता है तो यह सोच कर लोग तपिश बरदाश्त कर लेते हैं  कि – “तप ले सूरज काका ,उसके बाद बारिश को तो तुम्हारी तपिस भी नहीं रोक सकेगी।
 “मानसून” क्या है यह हर आदमी नही जानता ।मानसून का आगमन मतलब अक्सर बारिश की शुरूआत मानी जाती है ।पर हर बारिश मतलब मानसून नही होता ।बारिश के अलग-अलग कारणों मे मानसून भी एक बड़ा कारक है । तकनीकी रूप से मानसून और बारिश मे फर्क होता है । मैं मानसून के उस विषय पर डिटेल मे नही जाना नहीं चाहूंगी पर इतना बता दूं कि मानसून आने का मतलब बारिश आ रहा है यह समझना ठीक नही है । दरअसल गर्मी के तपिश के बाद दक्षिण मे अरब सागर से जो नम हवा पश्चिम की ओर बहती है वह जहां जहां वायुमंडल मे उपस्थित नमी जो कि वहां के भू भाग की प्रकृति के कारण व विद्यमान नमी से टकराने के बाद उसी स्तर की बारिश की स्थिति पैदा करता है । जंगल, नदी पहाड़ हो तो ज्यादा, मैदानी हो तो कम । ये हवाएं ज्यों ज्यों आगे बढ़ती है, वह हवाएं शुष्क होते जाती हैं और बारिश बनाने के गुण मे कमी आने लगती है।
असल मे खेती से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हर नही तो अधिकतर इंसान, चाहे कितनी भी तकलीफ सहना हो,हर बरस , मानसून का स्वागत करने को आतुर रहता है ।पीने के पानी की बरसात पर निर्भर और लू,-लपट और गर्मी झेलता हर अमीर गरीब, शहरी, ग्रामीण को अब मानसून आने का इंतज़ार रहने लगा है ।कितना भी आद्योगिक विकास हो गया भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी बहुत हद तक मानसून- निर्भर कृषि पर आधारित है । किसान का खर्च किया पैसा पूरे बाजार तक पहुचता है । बल्कि यह भी कह सकें तो अतिश्योक्ति नही होगी कि  किसान पैसा पैदा करता है ,बाकी उसे कमाते हैं । किसान का मन मयूर को इसी बारिश मे ही पंख लगता है उसे इसी का साल भर इंतजार रहता है ।हालांकि आधुनिक बहुफसलीय खेती, हाथ में पानी और मानसून के प्रति इस निर्भरता में थोड़ी कमी से मानसून की बेसब्री या चिंता जरूर कम हुआ हो लेकिन  ” बिन मानसून सब सून ” …।
 चाहे नदियां, कुआं, बावली, ताल -तलैया .बोर -बोरिंग, बांध -नहर हो जब तक सीजन मे बारिश नही होगी ,इनकी क्या बिसात । धरती की गोद खेती की कोख, ये बरसात मानो जल नही कृपा बरसाती है ।
हां ! कभी-कभी कुसंतुलन प्रकोप और जलजले के रूप मे भी यह आता है पर ब्रम्हपुत्र का हर साल बहने वाला गांव भी तो बारिश का इंतजार करता है ।क्योंकि बरबाद होने के खतरों के बाद भी ,बाढ़ के बाद मिलने वाले कॉप (बाढ़ के साथ आकर खेतों मे जमने वाली मिट्टी ) पर होने वाली अच्छी फसल, बाढ़ के दर्द को मिटा देता है ।
आषाढ़ के दिन शुरू होते ही उल्लास की झमाझम लिए जिंदगी मे दाखिल होने वाले मानसून की हमारी परम्परा से लेकर साहित्य तक अनगिनत तस्वीरे है। दक्षिण भारत के तटो को भिगोते हुए मानसून चल पड़ा है उत्तर भारत के ऊंचे शिखरो को छूने, धरा में संगीत घोलने और मरू हो रहे मन मे हरियरी घोलने। केरल में मानसून की पहली बूंद मन मे कथकली की हलचल से आनन्दित करती हुई जब पूर्वोत्तर राज्यो मे मेघ गर्जना करती है तो असम का बिहू बरबस ही दार्जिलिंग की चाय की तरह एक नया अहसास कराती है। जब ये काले मेघ लहराती पवनो के साथ मुम्बई, कर्नाटक,तेलंगाना,आन्ध्रा को पार करते हुए गजरात पहुचते है तो गरबा सबका मन मोह लेती है। गरबा और डांडिया की मधुर तान पर झूमता हुआ मानसून मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को पार करता हुआ जब जनजातियो के प्रदेश झारखंड मे मेघ गर्जना करते है तो जनजाती समुदाय छाऊ नृत्य से दिल खोलकर स्वागत करते है। नृत्य करते हुए मेघ प्राचीन पाटलिपुत्र होते हुए राम कृष्ण की नगरी उत्तर प्रदेश मे पारम्परिक कत्थक की तरह झूमते – झूमते, ताल तलैया को भरते, धान के खेतो की हरियाली को संवारते -संवारते राजस्थान मे घूमर की तरह घूम – घूम कर मेघ उत्तरी छोर जम्मू के पर्वत शीर्षो को छूने का दावा करते हुए मेघ गर्जना के साथ नवबधू की तरह मेघ शनैः शनैः विदा हो जाते है।
“ऐ बारिश जरा जम के बरस, मेरी मिट्टी की झोपड़ी , घास की छत , तेरे नेमत की खुशबू से महका..
पपीहा की प्यास, दिलबर की आस !
बरखा रानी,  जरा जम के बरसो, मेरा दिलबर जा न पाए …झूम कर बरसो …”
 शायरों की शायरी, कवि की कल्पना, किसान की पूजा का अर्ध्य …
कागज की कश्ती, बारिश का पानी ,गली का रेला वो नुक्कड़ का ठेला,मजा ही कुछ और है… ।
पर  ! यह साल कुछ अलग है । आना और तुम भी देखना ,इससाल हम सूखे से कम महामारी से ज्यादा जल रहे हैं …।
सड़क पर छालों से छला , पांव-पांव चलता मजदूर इस बरस अपने गांव और अपने खेत पर ही मिलेंगे ।उसे भी फिर किसान बनाना ।  उनके टूटे फूटे घरौंदों में शहर से बड़ी उम्मीद से लौटे परिंदे कुछ ज्यादा ही होंगे । उनके घोंसले उजड़ने मत देना , कोशिश करना कि ‘दो जून की रोटी’ उसे वहीं मिल जाए । अपने आंचल से बूंदें लुटाकर वहीं रुक जाने को हौसला देना।  सूरज का ताप जिसे  मिटा न सका , हो सके तो उस महामारी के शाप को सैलाब बन कर तुम कहीं दूर बहा ले जाना । महीनों से घरों में कैद होकर बस हम भी तेरा ही रस्ता देख रहे हैं ।
मानसूनी बारिश की बूंदों को धरती पर नाचते ,चेहरों पर चुंबन करते ,तन-मन को भिगोते ,दीवारों पर बहे  रेलों के निशानों में रहस्यमय कहानियां बनाते , पगडंडियों में छप-छपाक और रास्तों के पत्थरों के साथ मस्ती करते  नदियों और झरनों में कुलाचें भरते हम तुम्हे फिर देखेंगे… ।
मानसून बस आजा – अब की बार जरा जम के बरसना …!
जरा ठहरना..ओ बरखा बैरन ,  इतना मत बरसना कि लॉक डाउन मे फंसे मेरे प्रियतम आ न पाए ,
और जब वह आ जाए , तुम
इतना बरसना .. कि फिर वापस न जा पाए..!
सुनो!प्रिय
जरा सुबह उठकर देखो,
तो पता चले कि
मानसून क्या है,
झूम रही है,हर वनस्पति,
आखें धुमाकर एक बार,
देख तो जरा।
पक्षी कतार में बैठे हुए हैं,
नये नये पक्षी दृष्टिगोचर हो रहे हैं,
नये नये गीत अकुंरित हो रहे हैं,
नेपथ्य में, संगीत बद्ध हो रहे हैं,
कवि को नये प्रतीक मिल रहे हैं,
नुक्कड़ों में प्राणी संगठित हो रहे हैं,
हरियाली को देख किसान हर्षित हो रहे हैं,
पहले अराधना में, अब उपमा गाने में,
मनप्रीत हो रहे हैं…।
— रीमा मिश्रा “नव्या”