कविता

चंचल सी वो लड़की

जानते हो!
यूँ तो ,
बहुत चंचल थी वो लड़की
बहुत बोला करती थी..
हर समय खिलखिलाते रहती थी..
तितली की तरह उड़ती रहती थी..
अपनी ही धुन में मगन – मस्त
डोलती रहती थी
चंचल सी वो लड़की..
पर जानते हो,
शायद ,
अंदर से कहीं उदास रहती थी ,
पागल सी
चंचल सी वो लड़की
ख़ुद से ही नाराज़ रहती थी ..
जानते हो क्यों..?
उसे अपने अरमानों को
ऊँची उड़ान न दे पाने की ख़लिश,
उसके मन में चुभते रहती थी..
समाज की बंदिशें मान लेने की परवरिश
और भी ऐसे ही बहुत कुछ..
चंचल सी वो लड़की,
ऊँचे आसमान में पंछी बन ,
चाँद को चूमना चाहती थी ..
बादलों को अपने होठों से पीना चाहती थी ,
हवाओं को अपने पंखों से बाँधना था उसे..
फ़िर एक दिन अचानक
 एहसास हुआ उसे,
सब कुछ समेटना होगा मुझे ,
अपने अरमान भी ,
अपने पँख भी..
वो बादल , वो चाँद ,
सब भूलना होगा..
आखिर!
वो लड़की थी न..
कीमत तो चुकानी ही होगी.. !
अब वो चंचल सी लड़की
वो साहसी नन्ही चिड़िया
तितली में तब्दील हो गई..!
अब ज़्यादा ऊंचा नहीं उड़ पाती
बादल , चाँद सब नहीं छू पाती ..
पर ज़िंदा है ,जिंदा रहेगी,
अपने परिवार के लिए,
इस कुत्सित समाज और दुनिया के लिए..
वो चंचल सी लड़की..।
— रीमा मिश्रा “नव्या”