कविता

रंजिशें

रंजिशें कुछ इस तरह
पाल ली हमनें
अपने दिलों में
सही क्या
गलत क्या
इस बात को
सोचना
दिमाग ने
विस्मृत
कर दिया
बैठ कुछ देर
शांत मन
सोच गहराई से
कहां कोई गलती हुई
जो एक दीवार
मन में खिंची
कोई भी दीवार
ऐसी नहीं
जो न गिर सके
होनी चाहिए
बस एक चाह
रंजिशों
से बाहर निकल आने की
बड़ी बड़ी रंजिशे भी
दोस्ती में बदलती
देखीं जमाने में
कोई भी चीज
सदा एक सी रहती नहीं
वक़्त के साथ
बदलती हैं सभी
— ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020