धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर को जानने व उपासना करने के लाभ

ओ३म्

मनुष्य का आत्मा चेतन, अनादि एवं एक अल्पज्ञ सत्ता है। परमात्मा ने मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति ज्ञान में वृद्धि करने के लिए बुद्धि मन आदि  इन्द्रिय अवयव दिये हैं। इनकी सहायता से मनुष्य अपनी आत्मा के ज्ञान में वृद्धि कर सकता है। ज्ञान की आवश्यकता क्यों है? मनुष्य को जीवन में ज्ञान की आवश्यकता सबसे अधिक है। जो मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसकी सभी शुभ कामनायें पूरी होने में शंका नहीं रहती। आज हम संसार में जिन लोगों को ऋषि, महापुरुष, महात्मा विद्वान आदि के रूप में जानते हैं वह सब ज्ञानी पुरुष थे और अपने ज्ञान के अनुरूप श्रेष्ठ कर्म करने के कारण ही उनका आज भी यश बना हुआ है। कुछ प्रमुख नामों में हम ब्रह्मा, अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, मनु, पतंजलि, कपिल, कणाद, बाल्मीकि, वेदव्यास, राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द, शंकर आदि को ले सकते हैं। इन महापुरुषों ऋषियों का यश इनके ज्ञान कर्मों के कारण ही आज भी दिग्दिगन्त व्याप्त है। अतः सभी मनुष्यों को ईश्वर व जीवात्मा सहित सृष्टि व इतर सभी विषयों का अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त करना।

मनुष्य का ज्ञान जितना वृद्धि को प्राप्त होता जाता है उतना ही उसका आचरण भी श्रेष्ठ हो सकता है। ईश्वर की भक्ति उपासना के क्षेत्र में तो मनुष्य के ज्ञान का सत्य पर आधारित होना तथा उसमें पूर्णता होना महत्वपूर्ण होता है। आजकल बहुत से लोग ईश्वर विषयक कथा प्रवचन आदि करते हैं परन्तु उनका ज्ञान अपनी अपनी पुस्तकों पर आधारित होता है जो सत्यासत्य से युक्त होता है। उससे न तो उन्हें लाभ होता है और न ही उनके अनुयायियों को। ज्ञान का शुद्ध व पवित्र होना तथा ज्ञानी मनुष्य का लोभ व अहंकार से मुक्त होना भी आवश्यक होता है। महाभारत के बाद ज्ञान की पराकाष्ठा यदि किसी एक मनुष्य में देखने को मिलती है तो हमें वह व्यक्ति व महापुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती दीखते हैं। उन्हें चारों वेदों सहित सभी शास्त्रों तथा देश व समाज का भी सत्य तथ्यों पर आधारित ज्ञान था। वह ईश्वर के श्रेष्ठ भक्त व उपासक थे। उनका कहा व लिखा एक-एक शब्द मनुष्य की आत्मा व जीवन की उन्नति में अत्यन्त उपयोगी है। यदि हम महर्षि दयानन्द लिखित साहित्य सहित उनके जीवन चरित्र का अध्ययन कर लें तो हमारा निश्चय ही कल्याण हो सकता है। इससे हम प्रेय व श्रेय दोनों क्षेत्रों में सफलतायें प्राप्त कर अपने वर्तमान जीवन सहित परजन्म के जीवनों को भी कल्याणमय बना सकते हैं। बिना महर्षि दयानन्द के साहित्य का अध्ययन किये हम धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर पायेंगे, ऐसा हमें लगता है। अतः आध्यात्म के सभी जिज्ञासुओं को महर्षि दयानन्द लिखित ग्रन्थों सहित उनका जीवन चरित्र एवं वैदिक आर्य विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन अवश्य ही करना चाहिये।

ईश्वर को जानने से हमारी अविद्या दूर होती है। अविद्या दूर होने से हम ईश्वर सहित अपनी आत्मा तथा संसार के विषय में यथार्थ ज्ञान से युक्त हो सकते हैं। ज्ञान से अनेकानेक लाभ होते हैं, हानि किसी प्रकार की कोई नहीं होती। ज्ञान हो तो मनुष्य का जीवन एक अन्धे मनुष्य के समान होता है। उसे अपने कर्तव्यों तक का भी ज्ञान नहीं होता। वह उचित अनुचित को नहीं जान सकता। वह दूसरे दुष्ट स्वार्थी मनुष्यों से अपनी अपने हितों की रक्षा नहीं कर सकता। ईश्वर का ज्ञान होने से हम ईश्वर के स्वरूप व उसके उपकारों को भी जान पाते हैं। ईश्वर के हम पर क्या-क्या उपकार हैं? ईश्वर अनादि, नित्य, अविनाशी होने सहित सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान एवं न्यायकारी सत्ता है। सर्वव्यपक एवं सर्वशक्तिमान होने से वह हर क्षण व हर पल हमारी रक्षा करती है। हमें उससे निरन्तर सद्प्रेरणायें प्राप्त होती हैं और हमारे कर्तव्यों का बोध होता है। ईश्वर की सत्ता हमें पाप कर्मों को न करने की प्रेरणायें भी करती है और जब हम अहितकारी कामों का चिन्तन व उन्हें करने की चेष्टा करते हैं तो ईश्वर हमारी आत्मा में भय, शंका, लज्जा उत्पन्न कर हमें पाप कर्मों को करने से रोकती है। यह कार्य एक पिता, आचार्य, शुभचिन्तक, मित्र व सखा जैसा होता है।

इतना ही नहीं हमारी आत्मा को सुख प्रदान करने के लिये ही ईश्वर ने त्रिगुणात्मक जड़ सूक्ष्म अनादि नित्य प्रकृति से इस जगत् को बनाया है। ईश्वर का इस जगत् को बनाने से अपना कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता अपितु इससे हम हमारी जैसी आत्माओं को ही लाभ होता है। हमने अपने जीवन में जितने भी सुख भोगे हैं वह सब हमें ईश्वर ने ही इस सृष्टि को बनाकर तथा हमें हमारे मातापिता, भाई बन्धु तथा मित्र आदि के माध्यम से प्रदान किये कराये हैं। वही हम सबका जगत का उत्पत्तिकर्ता, नियन्ता, आचार्य, मातापिता, राजा न्यायाधीश है। इन सब कार्यों के लिये हम ईश्वर के ऋणी हैं। हम जिस सत्ता व व्यक्ति के ऋणी होते हैं, उसका ऋण हमें चुकाना पड़ता है। यहां तक की हमारे माता-पिता व आचार्यों तथा किसानों का भी हम पर ऋण होता है जिसे हमें चुकाना होता है। जब हमें अपने सभी सहायकों का ऋण चुकाना होता है तो ईश्वर का इस जगत को बनाने, इसका पालन व रक्षा करने, हमें जन्म देने, माता, पिता, आचार्य, देश, भूमि, अन्न, ज्ञान व शक्ति देने के लिये ईश्वर का ऋण भी अवश्य चुकाना चाहिये। इस कार्य की पूर्ति के लिये हमारे पास हमारे अपने किसी प्रकार के कोई साधन नहीं है। अतः हम ईश्वर की केवल स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना व भक्ति करके ही उसका ऋण स्वल्पमात्र चुका सकते हैं। जो ऐसा करते हैं वह भाग्यशाली होते हैं और जो ईश्वर को जानने का प्रयत्न नहीं करते, उसके उपकारों का स्मरण नहीं करते, उसका धन्यवाद एवं ध्यान नहीं करते, वह मनुष्य कृतघ्न सिद्ध होते हैं। वह ईश्वर की विशेष कृपाओं सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होने से वंचित रह जाते हैं। अतः ईश्वर को जानना व उसकी उपासना करना सभी मनुष्यों का कर्तव्य सिद्ध होता है।

ईश्वर को जानने का प्रमुख साधन वैदिक साहित्य का स्वाध्याय है जिसमें सत्यार्थप्रकाश, उपनषिद, दर्शन, वेदों का अध्ययन करते हैं। ऋषि दयानन्द के जीवन चरित पढ़ने से भी मनुष्य के सभी प्रकार के ज्ञान में वृद्धि होती है। इस अध्ययन से मनुष्य को ईश्वर का सत्यस्वरूप स्पष्ट हो जाता है। आत्मा को भीतर से ईश्वर की उपासना भक्ति करने की प्रेरणा स्वतः मिलती है। उपासना से अनेक लाभ होते हैं। उपासना एक प्रकार से ईश्वर के साथ संगति होती है। जिस प्रकार हम सज्जन पुरुषों की संगति कर ज्ञान व विद्या सहित सदाचार को ग्रहण करते हैं उसी प्रकार से दुर्जनों की संगति से मनुष्य के सद्गुणों का स्थान दुर्गुण व दुव्र्यस्न ले लेते हैं। बुरे लोगों की संगति से मनुष्य की आत्मा व जीवन का पतन होता है। ईश्वर की उपासना व संगति ऐसी है जैसे कि मनुष्य शीतल जल से स्नान कर मनुष्य शीतलता का अनुभव करता है और शीत से आतुर मनुष्य अग्नि के समीप जाकर शीत से मुक्ति को प्राप्त होकर सामान्य सुख की अवस्था का अनुभव करता है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना से मनुष्य के दुर्गुण दूर होकर सद्गुणों की प्राप्ति सहित सदाचार में प्रवृत्ति होती है। प्रार्थना से अहंकार दूर होकर विनम्रता एवं ईश्वर की महत्ता व महानता का बोध होता है। उपासना से आत्मा के सभी दोष व दुर्गुण दूर हो जाते हैं और आत्मा ईश्वर के ज्ञान से अत्यधिक लाभान्वित व युक्त होता है। ईश्वर की उपासना से आत्मा का बल बढ़ता है जिससे वह पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी घबराता नहीं है। यह कोई छोटी बात नहीं है? यह उपासना का अतिरिक्त लाभ है। ईश्वर का उपासक जीवन में आने वाले सभी दुःखों को अविचल होकर सहन कर सकता है। अतः इन लाभों को प्राप्त करने के लिये मनुष्यों को ईश्वर की उपासना अवश्य ही करनी चाहिये।

वेदों वैदिक साहित्य का स्वाध्याय से ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान होता है। दुर्गुणों की निवृत्ति एवं सद्गुणों की प्राप्ति होती है। मनुष्य नास्तिक नहीं होता तथा ईश्वर के उपकारों के लिये उसकी उपासना सहित उसका ध्यान चिन्तन करता है। सदाचार, स्वाध्याय, ईश्वर-उपासना तथा सत्पुरुषों की संगति से वह पाप का परिणाम दुःखों से मुक्त हो जाता है। उसका परजन्म वा भावी जन्म भी नीच पशु-पक्षी आदि योनियों में न होकर मनुष्यों की श्रेष्ठ देव योनि व परिवेश में होता है जहां उसे सुख के प्रभूत साधन प्राप्त होते हैं। वह धार्मिक वातावरण में रहता है और वेद निहित मोक्ष के अनुरूप कर्मों को करता हुआ कालान्तर में जन्म व मरण के दुःख रूपी बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होता है। मोक्ष की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों की होती है। इस अवधि में मुक्त जीवात्मा ईश्वर में सान्निध्य में रहकर सुख व आनन्द का भोग करता है। यह सब लाभ ईश्वर को जानने, उसका चिन्तन, मनन, ध्यान व उपासना करने से प्राप्त होते हैं। अतः सभी मनुष्यों को ईश्वर विषयक सत्साहित्य का स्वाध्याय एवं उसकी उपासना अवश्य ही करनी चाहिये। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य