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“महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग के अद्भुत रहस्य और प्रयोग”

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस 21 जून विशेष
“महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग के अद्भुत रहस्य और प्रयोग”

भारत आध्यात्मिक मूल्यों से सम्पन्न देश है। भारत की संस्कृति अध्यात्म जनित है। अध्यात्म में इक प्रत्यय लगने से ही आध्यात्मिक शब्द बना है, जिसका अर्थ है आत्मा का अध्ययन। आत्मा ,मनुष्य की ऐसी चेतना शक्ति है जो मनुष्य को जीवित रखती है। इस चेतना शक्ति के निकल जाने पर मानव मृत हो जाता है। आत्मा परमात्मा का अंश है, आत्मा के द्वारा परमात्मा की शक्तियों के रहस्य को जानने की क्रियात्मकता अध्यात्म है। प्रश्न यह है कि यह प्रक्रिया क्या है, वह माध्यम क्या है, वह तरीका क्या है? जिसके द्वारा आत्मा, परमात्मा के रहस्य और उसके वास्तविक स्वरूप को जानकर उसी में लीन होना चाहती है, जैसे हिमालय पर जमी हुई हिम, पिघल कर नदियों से बहकर सागर में मिलना चाहती है। हिमालय पर जमी एक बूंद आत्मा है, सागर परमात्मा है। इसी बूंद का घुलकर , नदी में बहकर सागर में मिल जाना अध्यात्म है।
आत्मा निर्विकार है, जब यह मन या चित्त के प्रभाव में आती है तब आत्मा अपने सत् चित् आनंद के मूल भाव से शिथिल हो जाती है। परमात्मा का मूल स्वरूप है सच्चिदानंद। जब आत्मा , परमात्मा के सतत सम्पर्क में रहती है तब मनुष्य ईश्वरीय शक्तियों के द्वारा अपने आसपास सकारत्मक ऊर्जा का वर्तुल बनाये रखता है। आत्मा सूर्य के समान प्रकाशमान है, मन के काले घने बादलों के आने से प्रकाश मन्द हो जाता है। इन्हीं बादलों को हटाने का माध्यम अध्यात्म है।
जैसा कि ऊपर कहा गया कि आत्मा के द्वारा परमात्मा की शक्तियों के रहस्य को जानने की क्रियात्मकता अध्यात्म है, अध्यात्म अर्थात आत्मा का अध्ययन। जैसे संगीत सीखने के लिए वाद्ययंत्रों की आवश्यकता होती है उसी तरह आत्मा के अध्ययन के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है और इस माध्यम को योग कहा जाता है। योग क्या है ? यह भी परमात्मा प्रदत्त प्रयोग है। इसका आरम्भ कब हुआ ? यह कहना तो कठिन है लेकिन योगेश्वर श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय के आरम्भ में कहा-

श्रीभगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥४-१॥
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥४-२॥
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥४-३॥

अर्थात- योगेश्वर कृष्ण कहते हैं – पहले मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा॥1॥हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु बहुत काल बीतने के बाद वह योग- परम्परा (पृथ्वी से) लुप्त हो गयी॥2॥ वही यह पुरातन योग आज मैंने तुमसे कहा है क्योंकि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो। यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है॥3॥
योग विज्ञान है, जिसे सन्त महात्माओं ऋषियों ने अपनी कठिन साधनाओं से अपना आध्यात्मिक विकास किया। कालांतर में योग की वैज्ञानिक पद्धति जन साधारण से दूर होती चली गयी। आज योग का नाम आते ही महर्षि पतंजलि का नाम आता है। महर्षि पतंजलि ने ईश्वर प्रदत्त और पूर्व योग परम्परा को आगे बढ़ाते हुए योग पर नया शोध किया। जिसे आज हम अष्टांग योग के रूप में जानते हैं। यह योग की एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक पद्धति है। इसके द्वारा मनुष्य शारीरिक , मानसिक, बौद्धिक औऱ आत्मिक उन्नति कर सकता है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
इस अष्टांग योग को हम संक्षिप्त में समझने का प्रयास करते हैं
यम- यम हमारे धर्म का मूल है। धर्म वह है जो धारण किया जाए। मनुष्य जब तक धार्मिक न हो तब तक योग में प्रवृत्त हो ही नहीं सकता। इसलिए यम के अंतर्गत पाँच प्रकार हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ।
नियम-योग में जीवन के सिद्धान्त और व्यवहार दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। नियम में भी पाँच आवश्यक तत्व हैं शौच,सन्तोष,तपस्या, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान।
आसन- स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन रहता है। मन स्वस्थ होगा तो आत्मा पर दुष्प्रभाव नहीं होगा। आत्मा सतत परमात्मा के सम्पर्क में रहे यही योग का उद्देश्य है।
तो आसन के द्वारा शारीरिक व्याधियों को दूर किया जाता है।
आसन मांसपेशियों, जोड़ों, हृदय-तंत्र प्रणाली, नाडिय़ों और मन, मस्तिष्क और चक्रों के लिए भी लाभदायक हैं। ये सम्पूर्ण नाड़ी-प्रणाली को सशक्त करने और संतुलित करने के साथ-साथ मन-मस्तिष्क को भी शांत और स्थिर रखते हैं। जाने अनजाने में प्रकृति के नियमों को तोड़ने से बीमारी पैदा होती है। इसलिए इसका इलाज भी यही होगा कि मनुष्य प्रकृति के नियमों का पालन करे। हम देखते हैं इस जगत में मानव के साथ-साथ अन्य जीव-जंतु भी रहते हैं लेकिन वे कभी प्रकृति के नियमों का उलंघन नहीं करते इसलिए स्वस्थ रहते हैं। यही कारण है कि योग विज्ञान में आसनों के नाम जीव-जंतुओं के नाम पर रखे गये हैं।
उष्ट्रासन, भुजंगासन, मर्कटासन, मकरासन, आदि।
प्राणयाम- शारीरिक तप के अंर्तगत प्राणायाम अंतिम औऱ अष्टांग योग के क्रम में चौथा अंग है। प्राणायाम का अर्थ है प्राण +आयाम।अर्थात प्राणों का आयाम, प्राणों का विस्तारण। योग विशेषज्ञों का मानना है कि जो श्वास हम ग्रहण करते हैं वह जीवनदायिनी शक्ति होती है । इसे ही प्राण तत्व कहते हैं । योग में प्राण का अर्थ कास्मिक इनर्जी, ब्रह्मण्ड -ऊर्जा माना जाता है । प्राणशक्ति हमारे शरीर के कोषों को यथा स्थान बांधे रहती है , उसे बिखरने से बचाती है। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण शक्ति शरीर के कोषों को भी अपनी ओर खींचती है। ज्यों-ज्यों शरीर में प्राण शक्ति की कमी होती जाती है पृथ्वी की आकर्षण शक्ति उन्हें ढीला करती जाती हैं।

योगियों की एक और मान्यता है कि हमारा शरीर ब्रह्मांड के समान है, जो कुछ ब्रह्मांड में है वह सभी इस शरीर में है।ब्रह्मांड के सूर्य – चंद्र भी शरीर में हैं । दाहिने स्वर से संबंधित नाड़ी सूर्य शक्ति से ओतप्रोत है और बाएं स्वर से संबंधित नाड़ी चंद्रमा की शक्ति से युक्त है । हमारे शरीर में एक नाड़ी साढ़े तीन कुंडली मारकर नाभि के नीचे बैठी है , जिसमें से दस नाड़ियां निकलती हैं । इन दस में से तीन नाड़ियां महत्वपूर्ण हैं, इड़ा,पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा नाक के बाएं स्वर (नासिका छिद्र) में खुलती है और पिंगला दाहिने स्वर में , सुषुम्ना दोनों के बीच में रहती है। आयुर्वेद प्राणायाम को स्वास्थ्य लाभ की मान्यता देता है।
महाराज मनु के अनुसार प्राणायाम द्वारा इन्द्रियों के मल उसी भांति दूर हो जाते हैं जैसे अग्नि में तपकर धातुओं के मल नष्ट होजाते हैं।
“दह्यन्ते ध्यायमानानाम् धातूनां हि.यथा मला:।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषा: प्राणस्य निज्यहात्।।”
प्राणायाम क्रिया तीन भागों में पूरी हो जाती है।
रेचक-पूरक औऱ कुम्भक । क्रमशः श्वास छोड़ना-
श्वास लेने या खींचना और श्वास को रोकना।
प्रत्याहार- स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।
प्रायः मन बाहरी विषय वस्तुओं में रमा रहता है परन्तु जब तुम ध्यान के दौरान मन को बाहरी वातावरण से समेट कर भीतर किसी वस्तु में अटका देते हो, उसे ही प्रत्याहार कहते हैं। इसे मन के लिए एक वैकल्पिक आहार भी कह सकते हैं। एक ऐसा विकल्प जिससे मन भीतर की ओर आने लगे। जैसे जब तुम ध्यान के उपरांत नाचते हो तो वह नृत्य एक प्रत्याहार ही है। मन को अंतर्मुखी करने के लिए, भीतर की यात्रा के लिए जो वैकल्पिक आहार है उसे ही प्रत्याहार कहते हैं। भीतर एक उत्साह, प्रेम और ऊर्जा का उत्थान बना रहता है, यह प्रत्याहार का प्रभाव है।
धारणा – धारणा और ध्यान मैं प्रायःलोग अंतर नहीं करते , दोनों को एक ही अवस्था मान लेते हैं जबकि ऐसा नहीं है। धारणा में योगी अपनी शक्ति को एक दिशा में प्रसारित करता है , जबकि ध्यान में योगी अपने चारों बिखरी शक्ति को अपने भीतर समेटता है। धारणा के अंतर्गत त्राटक जैसी साधना के प्रयोग से साधक अपनी संकल्प शक्ति को प्रबल करके दूसरे के मन पर प्रभाव कर सकता है। सम्मोहन विद्या इसी का भाग है।
ध्यान- जैसा कि उपर्युक्त स्पष्ट है कि ध्यान में योगी अपने चारों बिखरी शक्ति को अपने भीतर समेटता है। ध्यान समाधि से पूर्व वह क्रिया है जो समाधि का प्लेटफॉर्म तैयार करती है। इसमें साधक एक लंबी साधना के बाद ध्यान की अतल गहराई में पहुंचता है। आज ध्यान के दो रूप सामने हैं एक मानसिक शांति के लिए किया गया प्रयोग। दूसरा समाधि के लिए स्वयं को तैयार करना। आज भागती जिंदगी में पहला वाला प्रयोग हो रहा है। जबकि दूसरा समाधि का आरम्भिक काल है।
आज की युवा पीढ़ी के लिये ध्यान का प्रयोग अत्यावश्यक है जो बहुत सरल है ,आज विश्व स्तर पर मेडिटेशन के नाम से सर्वाधिक प्रयोग किया जा रहे हैं। ध्यान, योग का वह अंग है जो पूर्णतः सरल , सहज है। युवा पीढ़ी जिसकी एक सबसे बड़ी समस्या चित्त का एकाग्र न होना है तो इस विधि से ध्यान/मेडिटेशन किया जा सकता है।
सर्व प्रथम घर में एक ऐसे स्थान का चयन करलें जो शांत, स्वच्छ और आपके शरीर के तापमान के अनुकूल हो। शांत चित्त होकर बैठें, बिल्कुल सहज कोई दबाब नहीं,कोई तनाव नहीं । बस एक ही काम करना है अपनी श्वास पर ध्यान देना है, श्वास आरही है, नासिका छिद्रों से होकर श्वास नलिका से फेंफड़ों तक जा रही है । श्वास ठहरी हुई है। श्वास बाहर निकल रही है। आप देखेंगे धीरे-धीरे आप भीतर की यात्रा पर होंगे। शनैः शनै: मन आपके बस में होता जाएगा। फैली हुई ऊर्जा आपके भीतर स्वतः ही आने लगेगी।
समाधि- समाधि अष्टांग योग का अंतिम चरण है। इसमें साधक की कुंडली षट चक्रों का भेदन करती हुई सहस्त्रार चक्र पर विराजमान हो जाती है और साधक की आत्मा जब चाहे तब संसार से डिस्कनेक्ट होकर अपने प्रियतम का दर्शन कर सकती है। मानव, शरीर में रहकर आत्मा का परमात्मा से मिलन होना ही समाधि है। कबीर ने लिखा है कि
अवधू गगन मंडल घर कीजै,
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नालि रस पीजै॥टेक॥
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमन यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भया पलीता, तहँ जोनणीं जागी॥
मनवाँ जाइ दरीबै बैठा, गगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा॥

आज आधुनिक युग में योग के वैज्ञानिक महत्व को भारत के साथ विश्व स्तर पर योग के एक अंग ध्यान को प्रसारित करने में आचार्य रजनीश ओशो ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साथ ही भावातीत ध्यान के लिए महर्षि महेश योगी का नाम भी लिया जा सकता है। साथ ही आसन औऱ प्राणायाम पर इस समय बाबा रामदेव ने सर्वाधिक योग को प्रसारित किया है। लेकिन एक नाम जो सबसे महत्वपूर्ण है योग के योगदान में जिसने भारत के योग का वैधानिक रूप विश्व को दिया, वह नाम है, देश के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी का। जिनकी पहल पर 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र में 177 सदस्यों द्वारा 21 जून को ” अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” को मनाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली। उन्होंने भारत की मूल और सनातन संस्कृति को विश्व मंच पर स्थापित किया, यह सराहनीय है। आज हम गर्व से कह सकते हैं कि भारत के योग की पताका अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर फहरा रही है।
(लेखक के अपने निजी विचार हैं पाठको सहमत होना आवश्यक नहीं)

डॉ. शशिवल्लभ शर्मा

डॉ. शशिवल्लभ शर्मा

विभागाध्यक्ष, हिंदी अम्बाह स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय, अम्बाह जिला मुरैना (मध्यप्रदेश) 476111 मोबाइल- 9826335430 ईमेल-dr.svsharma@gmail.com