अचरज कैसा
झूठ बोलते लोग यहाँ पर अचरज कैसा ,
राज खोलते लोग यहाँ पर अचरज कैसा।
सच कहना तो भूल गए हैं इक अर्से से ,
मारें गप्पें लोग यहाँ पर अचरज कैसा।
बात बात पे लड़ते मरते आपस में ही ,
सनक गए हैं लोग यहाँ पर अचरज कैसा।
दीवानों से दिल की बातें पूछ रहे क्यों ,
इश्क का लगा रोग यहाँ पर अचरज कैसा।
जो ईश्वर को कभी नहीं पूजते यारों ,
वही खा रहे भोग यहाँ पर अचरज कैसा।
— महेंद्र कुमार वर्मा