भाषा-साहित्य

हिंदी के हितैषी, मगर हैं विदेशी 

हिंदी भाषा को पूरे भारत वर्ष की सम्पर्क भाषा बनाने हेतु असंख्य महानुभावों ने महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई। उन में से कुछ प्रमुख नाम हैं स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, भारतीय रेलवे बोर्ड, बोलीवुड की फ़िल्में आदि। निस्संदेह इन सभी का प्रयास सराहनीय, उल्लेखनीय,अनुकरणीय और वंदनीय है। भारत देश में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं जिन्हें हिंदी के बदले अंग्रेजी भाषा से अधिक प्यार है। जैसे हिंदी फ़िल्मों के कलाकार। रुपया, पैसा हिंदी फ़िल्मों से कमाते हैं, लेकिन अंग्रेजी में बोलना अपनी आन – बान – शान – स्वाभिमान समझते हैं। इसके विपरीत कुछ विदेशियों ने हिंदी भाषा के प्रति अपार आदर, आस्था, सम्मान वाला व्यवहार करके गौरवपूर्ण परंपरा प्रस्तुत की। हिंदी के रंग – रूप से इस कदर प्रभावित हुए कि उनके रोम – रोम में हिंदी भाषा समा गयी। उन्होंने देश – दुनिया के सामने एक आदर्श, ऊंची मिसाल पेश की। ऐसे चुनिंदा हिंदी के हमसफ़रों के सफ़र पर एक दृष्टि डालते हैं।
           हिंदी के हिमायती :  इस कड़ी में सबसे प्रमुख, सम्माननीय हैं मूल बेल्जियम निवासी फादर कामिल बुल्के जी। भारतीय दर्शन से प्रभावित होकर 1935 में भारत आए। तुलसी साहित्य पढ़ने हेतु सबसे पहले हिंदी सीखी। हिंदी के प्रति आकर्षण, प्रेम के चलते वे संस्कृत की तरफ बढ़े। कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत की डिग्री हासिल की। धर्मशास्त्र, संस्कृत और हिंदी के अध्ययन में विशेष रूची के कारण वे पूरी तरह हिंदी को समर्पित हुए। 1950 में रामकथा पर पीएचडी की। अध्यापन का पेशा अपनाकर, आजीवन रांची ( झारखंड ) के सेंट जेवियर्स कॉलेज में हिंदी पढ़ाते रहे। उनका अंग्रेजी – हिंदी शब्दकोश बेहद लोकप्रिय है। नीलपक्षी शीर्षक से बाइबिल का हिंदी अनुवाद किया है। बुल्के जी ने भारत देश के प्रति अपार गहरे प्यार के कारण यहां का नागरिकत्व स्वीकार किया। संस्कृत और हिंदी के प्रति अपने गहरा लगाव – जुड़ाव इस प्रतिक्रिया में साफ दिखता है। उन्होंने कहा था, “ संस्कृत महारानी, हिंदी रानी। “
        हिंदी के हमदम :  मारिया ब्रिस्की 90 के दशक में भारत में पोलैंड के राजदूत थे। दिल्ली में हिंदी की गोष्ठियों में अनिवार्य उपस्थिति के चलते हिंदी के प्रति दिलचस्पी बढ़ी। उन्होंने काशी विश्वविद्यालय से संस्कृत की पढ़ाई पूरी की। अपने देश पोलैंड लौटने पर उन्हें एक संस्थान में प्राध्यापक की नौकरी मिली। यह संस्थान हिंदी और बांग्ला भाषा का प्रमुख केंद्र था। वहाँ पर अध्ययन, अध्यापन होता था। ब्रिस्की के प्रयासों के चलते वहाँ पर तमिल भाषा सिखाई जाती। उन्होंने हिंदी कविताओं का न सिर्फ़ पोलिश भाषा में सफल अनुवाद किया, बल्ख़ि लोकप्रियता भी दिलवाई। उनको भारतीय भाषाओं के शब्दों को समझने – समझाने में महारत हासिल थी। अपने देशवासियों से हिंदी नाटकों का परिचय करवा कर प्रशंसनीय कार्य किया।
        हिंदी के हमसाया :  हरिवंश राय बच्चन जी की आत्मकथा को अंग्रेजी के विशाल पाठक वर्ग से परीचित कराने वाले व्यक्ति लंदन निवासी का नाम है रुपट स्नेल। उन्होंने इंग्लैंड की धरती पर हिंदी के क्लासिक रूप को जन – जन तक पहुंचाने में सराहनीय सहयोग, योगदान दिया। ` हित चौरासी ´ नामक प्राचीन भारतीय ग्रंथ पर शोध करके ख्याति अर्जित की। हिंदी भाषा को लंदन में प्रतिष्ठा दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फर्राटेदार हिंदी बोलना उनकी खासियत रही। ब्रजभाषा में कविताएँ लिखना उनकी दूसरी खूबी थी। ब्रज में लिखे उनके सुंदर दोहों को ब्रिटन के हिंदी प्रेमी बड़े चाव से पढ़ते – सुनते – सुनाते हैं। उनकी लिखित ` टीच योरसेल्फ हिंदी ´ और ` बिगिनर्स हिंदी स्क्रिप्ट ´ किताबें विदेशी छात्रों को सरलता से हिंदी सीखने में सहायक साबित होती हैं।
          हिंदी की हमजोली : अमरीकन लेखिका कैथरिन रसेल रिच,  न्ययोर्क युनिवर्सिटी की गै ब्रिलाला के सम्पर्क में आयी तो उनका हिंदी भाषा की विशेषताओं से प्रथम परिचय हुआ। हिंदी भाषा पर मंत्रमुग्ध होकर, हिंदुस्तान आकर हिंदी सीखने की ठानी। उदयपुर ( राजस्थान ) के एक हिंदी भाषी परिवार के साथ रही। सप्ताह में बीस घंटों का उच्चारण, व्याकरण और हिंदी फ़िल्म चर्चा का कार्यक्रम देखती। हिंदी भाषा और हिंदुस्तानी अनुभव के संस्मरणों को उन्होंने किताब की शक्ल में प्रकाशित करवाया। शीर्षक दिया ` ड्रीमिंग इन हिंदी ´। अंग्रेजी में प्रकाशित इस पुस्तक में एक जगह उन्होंने लिखा है, “ हिंदी में मैं की जगह हम कहने का चलन ज़्यादा है। कहा जाता है कि जब आप पराई भाषा को अपनाते हैं तो आप ख़ुद भी थोड़े बदल जाते हैं।“ कैथरिन को भी ऐसा महसूस हुआ। उन्होंने हिंदी को ऐसे आत्मसात किया, मानो उनकी अपनी भाषा हो।
      आज़ादी के 73 वर्षों बाद भी हिंदी को हिंदुस्तान में उचित मान – सम्मान नहीं मिलता है। आज भी ऐसे लोग बड़ी संख्या में मौजूद हैं जोकि हिंदी की बजाय अंग्रेजी को आलिंगनबद्ध करना अपना कर्तव्य समझते हैं। अंग्रेजी को आवश्यकता से अधिक इज़्ज़त देकर, हिंदी को हीन दृष्टि से देखते हैं। ऐसे लोगों के लिए ये विदेशी नागरिक , हिंदी प्रेमी प्रेरणा स्रोत बन सकते हैं।
-– अशोक वाधवाणी 

अशोक वाधवाणी

पेशे से कारोबारी। शौकिया लेखन। लेखन की शुरूआत दैनिक ' नवभारत ‘ , मुंबई ( २००७ ) से। एक आलेख और कई लघुकथाएं प्रकाशित। दैनिक ‘ नवभारत टाइम्स ‘, मुंबई में दो व्यंग्य प्रकाशित। त्रैमासिक पत्रिका ‘ कथाबिंब ‘, मुंबई में दो लघुकथाएं प्रकाशित। दैनिक ‘ आज का आनंद ‘ , पुणे ( महाराष्ट्र ) और ‘ गर्दभराग ‘ ( उज्जैन, म. प्र. ) में कई व्यंग, तुकबंदी, पैरोड़ी प्रकाशित। दैनिक ‘ नवज्योति ‘ ( जयपुर, राजस्थान ) में दो लघुकथाएं प्रकाशित। दैनिक ‘ भास्कर ‘ के ‘ अहा! ज़िंदगी ‘ परिशिष्ट में संस्मरण और ‘ मधुरिमा ‘ में एक लघुकथा प्रकाशित। मासिक ‘ शुभ तारिका ‘, अम्बाला छावनी ( हरियाणा ) में व्यंग कहानी प्रकाशित। कोल्हापुर, महाराष्ट्र से प्रकाशित ‘ लोकमत समाचार ‘ में २००९ से २०१४ तक विभिन्न विधाओं में नियमित लेखन। मासिक ‘ सत्य की मशाल ‘, ( भोपाल, म. प्र. ) में चार लघुकथाएं प्रकाशित। जोधपुर, जयपुर, रायपुर, जबलपुर, नागपुर, दिल्ली शहरों से सिंधी समुदाय द्वारा प्रकाशित हिंदी पत्र – पत्रिकाओं में सतत लेखन। पता- ओम इमिटेशन ज्युलरी, सुरभि बार के सामने, निकट सिटी बस स्टैंड, पो : गांधी नगर – ४१६११९, जि : कोल्हापुर, महाराष्ट्र, मो : ९४२१२१६२८८, ईमेल ashok.wadhwani57@gmail.com