लेख

हिंदी साहित्य में नारी की भूमिका

’हिन्दी साहित्य में नारी की भूमिका और लेखन’ विषय बड़ा विचारणीय है। हिन्दी साहित्य के इतिहास का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि रीतिकाल तक साहित्य लेखन में नारी का योगदान शून्य रहा, लेकिन पूरा साहित्य लिखा गया नारी को केंद्र में रख कर ही। रीतिकाल तक नारी को भोग्या मात्र समझ कर चार दीवारी में कैद कर संतानोत्पत्ति का माध्यम समझा गया। उसे पाने के लिए खून बहाया गया, लेकिन उसके खून में स्वाभिमान पैदा होने से रोका गया। वैदिक काल की समाप्ति के पश्चात भारतीय समाज पुरुष प्रधान हो गया। स्त्री शिक्षा पर प्रतिबंध लगा दिया गया, उसकी माँग और अधिकार पुरुष के खोखले अहंकार के समक्ष दम तोड़ गये। प्रताड़ित स्त्री मानसिक तनाव में जीती रही। मध्यकाल तक आते-आते स्त्री की स्थिति अत्यंत सोचनीय हो गयी।
हिन्दू धर्म में स्त्री के लिए पति परमेश्वर है। यत्र नारी पूज्यंते रमन्ते तत्र देवताः यह पंक्ति मात्र शास्त्रों की शोभा बनकर रह गई। पुरुष प्रधान समाज में पुरुष के ह्रदय में पत्नी देवी स्वरूपा कभी नहीं रही, होती तो राम ने सीता की अग्नि परीक्षा न ली होती। सिद्धार्थ ने यशोधरा को रूलाया ना होता। गौतम ने अहिल्या को पत्थर की सिला बना दिया, इसमें अहिल्या का तो कोई दोष नहीं था। युधिष्ठिर को क्या हक था द्रौपदी को जुआ में हार जाने का। लेकिन स्त्री की जिजीविशा की विवशता को पुरुष ने प्रताड़ित कर उसके अधिकारों से वंचित रखकर, असक्त बनाकर भोगा। स्त्री को उसकी शिक्षा के नाम पर बस यह सिखाया गया कि पति की दीर्धायु के लिए करवा चतुर्थी का ब्रत करे। मेरी मृत्यु के बाद तू भी आत्म दाह कर लेना। जौहर कर लेना।
आधुनिक काल तक आते-आते नारी का जो स्वर फूटा वह मात्र चंद दिनों का नहीं था, वर्षों की रोकी गई आवाज़ दहाड़ बनकर निकली। मध्यकाल में मीरा अपवाद के रूप में पैदा होती है, मीरा इसलिए विद्राह करती है कि उसने ईश्वर प्राप्ति के लिए भौतिक सम्बंधों से ना केवल मुक्त होने का संकल्प लिया वल्कि स्वयं का औरत होने से मुक्त होना था। ठीक यही विद्रोह हमें महादेवी में देखने को मिलता है, साथ ही सुभद्रा कुमारी चैहान ने अपनी लेखनी से वह लिख डाला जो एक पुरुष की सामर्थ्य से बाहर था, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी। सुभद्रा कुमारी चौहान की उक्त कविता से आधुनिक नारी की कलम को जो ताकत मिली वह आज देश की मंचों पर और पृष्ठों पर देखी जा सकती है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि बीते हुए समय में नारी ने भले कलम न पकड़ी हो लेकिन पुरुष ने जिस कलम से लिखा उस कलम में नारी के आँसुओं और वेदना का मिश्रण स्याही के रूप में था। आज नारी ने जिस कलम को थामा है उसमें पुरुष को बदले की स्याही नहीं बल्कि लेखन के लिए हाथ का अँगूठा बनाकर उसे पूरा सम्मान दिया है।

डॉ. शशिवल्लभ शर्मा

डॉ. शशिवल्लभ शर्मा

विभागाध्यक्ष, हिंदी अम्बाह स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय, अम्बाह जिला मुरैना (मध्यप्रदेश) 476111 मोबाइल- 9826335430 ईमेल[email protected]