संस्मरण

अतीत की अनुगूंज -19 : असुरक्षित बचपन और परिणाम

ली एक चुप्पा सा बालक था। सत्र के शुरू में कक्षा में यह सुनिश्चित करना कठिन होता है की कौन सा बच्चा कितना होशियार है काम में अतः सबको नामाक्षर क्रम में बैठाया जाता है।   इससे उनके नाम याद करने में भी आसानी होती है।   ली अपने मित्र के पास ही बैठा। उसे अपने हिसाब से   बैठाया तो वह वापिस उसी के पास जा बैठा। मैंने विशेष जोर नहीं दिया क्योंकि अक्सर बच्चे समझने के लायक नहीं होते और नए लोगों में असुरक्षित महसूस करते हैं।  बाद में मैंने उससे पूछा की वह मेरी बताई मेज़ पर क्यों नहीं बैठा तो वह तपाक से बोला   की उसपर काले लोग बैठे हैं।  मैंने उसको समझाया की स्कूल में हम  सबसे दोस्ती करने ही  आते हैं।  किसी को बुरा समझना अच्छी बात नहीं है।  तुमको किसने कहा कि काले बच्चे बुरे होते हैं ? वह उसी  निडर अंदाज़ में बोला ,मेरी नानी ने कहा और वह कभी झूठ नहीं बोलती है।
          कभी नस्लवाद को  मैंने कोई झगड़ा नहीं किया किसी भी बड़े या छोटे से।  ली केवल चार वर्ष और  का था।  बूढ़ों की पीढ़ी अभी भी  साठ और सत्तर में आये प्रवासी भारतीयों से खार खाती थी।  इसके लिए मैं उसको क्या कहती।  चुप मार ली।  ली बेहद बिगड़ी आदतों का बच्चा था जिसकी कोई जानकारी कहीं दर्ज नहीं होती।  घरों में बच्चों को बिगाड़ने की प्रथा भारत में भी कायम है।  अतः जबतक वह किसी को तंग न करे मैं उसको कुछ नहीं कहती थी।  पर उसके संवाद चर्चा का विषय बनाते जा रहे थे।  एक दिन उसने हमारी सहायिका को बताया की उसके पिता और माता ने बहुत लड़ाई की।  पिता ने लैंप उठाकर माँ पर फेंका तो माँ ने कमरा गरम करनेवाला हीटर उठा लिया और मारा।  सहायिका ने पूछा तुम कहाँ थे तो उसने बताया की माँ ने तो उसको उसके कमरे में सोने के लिए भेज दिया था मगर शोर से वह जाग गया और अपने दरवाजे को तनिक खोलकर देख रहा था।  हीटर जल रहा था इसलिए नायलॉन नेट के परदे में आग लग गई।  जिस कारण दोनों डरकर चुप हो गए।  जब वह दोनों आग बुझा रहे थे ली ने नानी को फोन कर दिया। वह आकर उसको अपने घर ले गयी।   नानी का घर स्कूल से आधा मील दूर था और पैदल जाने पर दो बार सड़क पार करनी पड़ती थी।
           सरकारी कटौतियों के कारण सहायिका का समय कम कर दिया गया।  एक दिन सब बच्चे तस्वीरों में रंग भर रहे थे तो  मेज़ की ओर निरिक्षण करने के लिए मुड़ी .अभी मैं उसका काम देख ही रही थी की
वह उठा और तीर की तरह भागा। मैं उसे पुकारती रही मगर वह आनन् फानन में स्कूल के बड़े फाटक को खोलकर बाहर सड़क पर भागने लगा।  घबराकर मैंने प्रधान अध्यापिका को एक बच्चे के हाथ खबर भिजवाई।  वह भी भागी मगर बच्चा नहीं मिला।  मुझे काटो तो खून नहीं।  तभी घर की छुट्टी हो गयी।  उसकी माँ भी लेने आ गयी।   मैंने  अपनी सफाई दी मगर वह बोली ठीक है अब तुम अपना इस्तीफा लिख लो अगर बच्चा खो गया तो तुम जेल में जाओगी .
             उसका और अन्य सभी का मानना था की मैंने उसके साथ सख्ती की है इसलिए वह डरकर भाग गया।  मेरा कोई गवाह नहीं था।  एक अध्यापिका अंग्रेज उस समय मेरी कक्षा में एक कोने में बच्चों की रीडिंग करवा रही थी। मैंने सहायता के लिए उससे कहा तो वह साफ़ मुकर गयी और बोली मैंने कुछ नहीं देखा।  अगर मैंने उसे डांटा था तो तुमने सुना तो होगा। मगर वह अपनी बात से टस से मस न हुई।  बड़ा मलाल मुझे।  मैं घबराहट में नीम बेहोश हो गयी।  तभी सेक्रेटरी ने उसकी फाइल में उसके नज़दीकी रिश्तेदार का पता ढूँढा तो पाया नानी वहीँ कहीं रहती थी।  तब जाकर उसकी माँ बोली की हो सकता है वह वहीँ गया हो। फोन करने पर वह वहीँ मिल गया। मेरी देवी माँ की अनुकम्पा से उसने खुद ही बताया की मैंने उसे कुछ नहीं कहा था मगर उसके पिता ने उसको डराया था की भारतीय औरतें कुरूप होती हैं डायनो के जैसे घूरती हैं। यह सब उसने प्रधान अध्यापिका और अपनी माँ के सामने कहा।
             खैर मुझको भेजकर उन दोनों में काफी देर तक संवाद होता रहा।  अगले दिन मैंने लिखित में ली के व्यवहार की एक तालिका बनाई।  उसके द्वारा अन्य बच्चों के विषय में कहे गए वाक्य उद्धृत किये और अंत में संस्थान से मांग की की यदि एक भी बच्चा स्कूल से बाहर निकल सकता है तो स्कूल के निकास सुरक्षित किये जाने चाहिए।  इसपर एक सभा बुलाई गयी अनेक अध्यापिकाओं ने मेरी बात का पूर्ण समर्थन किया।  पता चला की यह स्कूल के नियम के विरुद्ध है की दिन भर के कार्यकाल में निकास आदि पर ताला डाला जाये . मैंने दिया की ताला न सही ऊपर से हुक तो लगाया जा सकता है या सांकल जो केवल  वयस्कों की ऊंचाई पर लगी हो।
            ऐसा कुछ नहीं हुआ। ली फिर भी दो बार भागा।  नानी ने बताया की जब वह तीन बरस का था तो अपने घर से भागकर उसके पास आ जाता था।  ऐसा तभी होता था जब माँ और बाप आपस में लड़ते थे।
जैसे तैसे वक्त कटा . अगले वर्ष वह एक बहुत वरिष्ठ अध्यापिका  पैट्रिशिया  की कक्षा में बैठाया गया जिसका शासन सब मानते थे।  उसकी हरकतें अब मुझतक यदा कदा  आती थीं। खेल के मैदान में वह जरूर मुझसे आकर बातें करता था। पूछता था क्या वह फिर से मेरी कक्षा में आ सकता है।
            एक दिन सुबह मैं अपने घर से चली तो सड़क पर ट्राफ्फिक बहुत था आगे कहीं आग लगी थी एक के बाद एक दमकल के सायरन बजते ही जा रहे थे।  आठ बजा था। अभी स्कूल एक मील दूर था और बस थी की सरक ही नहीं पा रही थी।  बड़ी मुश्किल से पहुंची तो देखा आग हमारे ही स्कू;ल में लगी थी।  पैट की कक्षा जल कर कोयला हो गयी थी। हज़ारों का सामान काली कीचड में लिथड़ा पड़ा था। आग सात बजे लगाई गयी थी। पुलिस की तहक़ीक़ात में पता चला की एक जूनियर स्कूल का अंग्रेज लड़का अपनी कक्षा में सज़ा पा चूका था दो दिन पहले। तिस पर उसे हफ्ते भर के लिए शूल से निकाला गया था जब तक उसके माँ बाप नहीं आते माफ़ी करवाने।  उसने माँ की माचिस चुरा ली और अपने तीन अन्य साथियों के संग सुबह सुबह स्कूल में दाखिल हुआ। यह हिस्सा मुख्य भवन से खेल का मैदान पार करके बना हुआ था। अतः अलग और सुनसान था।  जमादार झाड़ू दे रहे थे।  कमरे के पीछे घास फूस का जंगल था। वह और उसके साथी वहीँ छुपे रहे। फिर उसने पैट के कक्ष से थोड़ी दूर बने अपने कक्ष में कागज़ जलाकर फेंके।  उसके साथियों में हमारा हीरो ली भी शामिल था।  पैट को वह अक्सर डायन कहता था।  उसकी कड़ी निगरानी में वह चूं भी नहीं कर पाता  था।  जिसे कभी शिष्टता सिखाई ही न गयी हो ,जिसको काम करने से जान बूझकर जी चुराना सिखाया जाता रहा हो ,अध्यापिकाओं को गालियां देना सिखाया गया हो और जिसने हमेशा अपने माँ बाप को झगड़ते देखा ही उस बच्चे की बाल्यसुलभ कोमलता नष्ट हो चुकी थी आगज़नी के इस खेल में वह भी अपनी अध्यापिका को सबक देने के लिए उद्यत था।  अतः इसी तरह कागज़ जलाकर उन चारों ने पैट के कक्ष को भी जलाने का कार्य किया और भाग खड़े हुए। यह कक्ष लकड़ी के बने थे।  पालक झपकते चिंगारी से विकराल अलाव बन गए।  अन्य दो बच्चे किसी अन्य स्कूल के थे।  स्कूल तो लगना ही था।  अकारण बंद कर दिया जाए तो बच्चों को स्कूल में छोड़कर नौकरी करनेवाले कहाँ जाएंगे ? अतः जब हाजिरी लगी तो यह दोनों बच्चे नदारद थे।  बड़ा नौ वर्ष का उस दिन अपने माँ बाप को लानेवाला था पर वः नहीं आया। ली भी गायब . नौ बजे माँ ने फोन किया की वह आज नहीं आएगा।  बीमार है पेट में दर्द है अतः नानी के घर रहेगा।  मगर दूसरे बच्चे के घर फोन किया गया और माँ बाप को पेश न होने का कारण पूछा तो वह बिलकुल अनभिज्ञ थे। बड़े बालक ने उनको बताया ही नहीं था की उसे सजा मिली है।  पर तभी उन्होंने पूछा की क्या वह उससे बात कर सकते हैं तो अध्यापक ने बताया की वह यहाँ नहीं है। अब जब जहाज हुई तो एक बड़े लड़के के संग पकड़ा गया जो बड़े कॉलेज में पढता था और कभी कभी स्कूल जाता था।  उसने उसको छुपा रखा था।  पिछले दिनों में वह इसी फुकरे के संग रह रहा था और समय पर घर पहुँच जाता था।  पुलिस ने दोनों बच्चों के सभी किस्से जमा किये और उनपर बाल अपराधी का ठप्पा लगा दिया।  ली केवल साढ़े सात वर्ष का था।
                 उसी साल स्कॉटलैंड में एक सिरफिरे अपराधी ने एक स्कूल में प्रार्थना  सभा के समय सुबह सुबह घुसकर गोलियों की बौछार कर दी जिसमे अनेकों नन्हे मुन्ने बच्चे मरे गए और आधी दर्जन युवा अध्यापिकाएं भी।  तब से दो हफ्ते के भीतर सारे इंग्लैंड के स्कूलों में सत्र काल में फाटकों पर इलेक्ट्रॉनिक ताले लगा दिए गए। यदि कोई आगंतुक दाखिल होना चाहे तो उसको घंटी बजानी पड़ेगी अंदर आने के लिए अपना पूरा परिचय रेडिओ पर देने के बाद ही वह अंदर दाखिल हो सकेगा।
                   यही तो मैंने सुझाया था। सैकड़ों जानें जाने बाद नियम बना।  अब यह नियम पूरे विश्व में लागू है।

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल [email protected]