कविता

मेरा सृजन

सृजन शाश्वत सत्य है
सृजन सृजक का प्राण है।
सृजन कैसा भी हो!
अच्छे से अच्छा या
या कितना भी खराब,
लेकिन उसमें समाहित होते हैं
सृजक की भावना
उसके भाव उसकी संवेदनाएं,
सब कुछ झोंक देता है सृजक
अपने सृजन में
बड़ी तल्लीनता से गढ़ता है ।
उकेरता, बनाता,चित्रित करता
शब्दमोतियों को पिरोता
अथवा
जन्म देने वाली जननी
सभी सृजक ही तो हैं।
सृजक अपने सृजन के लिए
क्या नहीं करते?
वो सब कुछ करते हैं
जो उनके सृजन के लिए
वो अधिकतम कर सकते हैं।
क्योंकि सृजन में
सृजक के प्राण बसते हैं,
हर सृजक के मन में
ये भाव होते हैं कि
उसके सृजन से बेहतर
उसे कुछ भी नहीं दिखते हैं।
★सुधीर श्रीवास्तव

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921