लड़कियां
धान की पनीरी की तरह
पहले बीजी जाती हैं लड़कियां
थोड़ा सा कद बढ़ जाये
थोड़ा सा रंग निखर आये
तो उखाड़ कर दूसरी जगह
रोप दी जाती हैं लड़कियां
कभी खेत बंजर तो कभी उर्वर
आते हैं हिस्से
परन्तु फिर भी जड़ें पकड़ ही लेती हैं
जमीन को अपना लेती हैं खुशी से
पानी भरपूर मिले या फिर उमस भरी धूप
सब सहकर मुस्कुरा लेती हैं
समय के साथ जब
सुनहरी बालियों से लहलहा उठती हैं
तब खुद पे इतरा उठती हैं
उमस भरी धूप का दर्द भूलकर
फिर फसल देने के बाद
शेष बच जाती हैं
जैसे धान की बालियां उतार लेने के बाद
पराली
जमाना बरसों से इसी तरह
बीज- रोप रहा है धान की बालियां और
लड़कियां देख भोग रही हैं यह लम्बी यात्रा
बस मूकदर्शक सी बनकर
किसे अपना कहे रोपने वाले को या
फसल लेने वाले को
असमंजस आज भी उतना ही है
जितना कल था ।।