कविता

अहंकार

अहंकार जब मनुष्य पर चढ़ जावे

वहां हो जाए सबसे न्यारे |

मात-पिता भी ना बिना उनको भाए

बहनों का हाथ वह कैसे थमाएं |

भाई को बिना समझे कुछ भी

औकाद तेरी क्या है मुझ बीन |

दर्द से स्वयं वह झूलते जाए

औरों को भी पीड़ा पहुंचाए |

चेहरे पर जो इतना इतराए

मन सदैव अशांत वो पाए |

अपने भीतर की पवित्रता को

क्रोध में ही नष्ट कर जाए |

है मेरी यही विनती

अहंकार की ना रखो दृष्टि |

मनुष्य जन्म हम इसलिए पावे

ताकि सबको सुख दे पाए |

— रमिला राजपुरोहित

रमिला राजपुरोहित

रमीला कन्हैयालाल राजपुरोहित बी.ए. छात्रा उम्र-22 गोवा