मुक्तक
कली के मुस्कुराने हुस्न के श्रृंगार के दिन हैं
करे जो चाह चाहत से उसी इज़हार के दिन हैं
नही अब ख़्वाब से होता गुज़ारा रू-ब-रू आओ
मुहब्बत से मुहब्बत की हँसी तकरार के दिन हैं
निगाहों का निगाहों से हुआ पहला मिलन जब से
निगाहों में बसा है रूप का खिलता चमन तब से
कभी इस ओर भी नज़रे इनायत कीजिये हमदम
खड़े हैं हम प्रतीक्षारत पुनः दीदार को कब से
उजाले हो गये तम से घिरी चारो दिशाओं में
लगी घुलने मुहब्बत की जवां खुशबू हवाओं में
तुम्हारे हुस्न की बिजली तुम्हारे रूप का जलवा
कसक दिल में नशा फैला गया देखो फ़ज़ाओं में
भ्रमर के गुनगुनाने से कली के मुस्कुराने तक
हृदय में याद नयनों में किसी के ख़्वाब आने तक
ख़ुदा की खूबसूरत नैमतों का नूर है सब कुछ
किसी से दिल लगाने से मुहब्बत गुनगुनाने तक
— सतीश बंसल