कविता

वार्तालाप सत्तर के आस-पास

कितनी जिद्दी हो चले हो तुम आजकल
मेरी तो कोई बात नहीं मानते,
सुबह सवेरे ये सारे खिड़की दरवाजे खोल देते हो
ठंडी हवा से दुश्मनी बेकार में मोल लेते हो,
बीमार पड़ गए तो कौन करेगा तुम्हारी देखरेख
बेटे बहू को भी दो-तीन दिन में वापस जाना है परदेस,
लाठी के बिना दो कदम तो चल सकते नहीं हो
पर चिड़ियों की चहचहाहट सुनने,
उनको दाना देने का शौक, अभी तक नहीं गया तुम्हारा,
चल देते हो लाठी टेक-टेककर बगिया से फूल चुनने
किसे समझाऊं ..? कोई तो हो जो मेरी सुने…..।

अरे भागवान, कितना बोलती हो तुम…?
मुंह में दांत तो रहे नहीं पर बोलते जाती हो,
चश्मा लग गया आंखों में फिर भी
मेरी हर हरकत को ताड़ जाती हो ।
पता है तुम्हें जब ब्याहकर लाया था
लोग कहते थे कितनी सौम्य और गुणी लड़की मिली है ,
मैं अपने भाग्य पर इठलाता था….।
हर बात पर मुझे इल्ज़ाम देती हो
तुम कौन सा मेरी बात मान लेती हो,
अलसुबह ज़ोर-ज़ोर से घंटी बजाकर
देवताओं को नहलाती हो, पुष्प चढ़ाती हो,
उन्हें तो मना नहीं पाती
पर बेटे बहू को नाराज कर जाती हो…।
तुम्हें भी तो पता है ना रात देर से सोकर
सुबह देर से जगने की आदत है उनकी,
हड्डी का ढांचा बन गया है ये तन तुम्हारा
फिर भी सुबह से ही काम में जुट जाती हो।
पता है मुझे जान नहीं है, इस शरीर में तुम्हारे
जल्दी ही थक जाती हो,
और फिर मुझे दुनिया भर के उपदेश सुनाती हो।
अरे ! मैंने तो अपने बचपन से ही
खुली खुली जगह का आदी रहा हूं।
भूल पाओगी तुम…..मेरे दादा का यही पुश्तैनी घर
जहां तुम नई नवेली ब्याह कर आयीं थी,
उसी आम के पेड़ तले बैठकर
तुम्हें आते जाते देखा करता था मैं।
कैसी सिमटी, सकुचायी सी
पायल की मधुर झंकार छेड़े,
आते जाते तुम भी कनखियों से
मुझे देख लिया करती थी कभी-कभी…..।
आज बूढ़ी शेरनी सी गुर्राती हो
मुझे उसी बगीचे में जाता देख…..?
याद है जब भी मैं कुछ ज्यादा देर
बैठ जाया करता था साथियों के साथ
अमवां की छांव में
तुम बेचैन सी एक दो बार
ज़रूर झांक लेती थीं झरोखे से….।
और आज इन खिड़कियों को
खोलने पर रोक लगाती हो….?

आहिस्ता बोलो अपनी उम्र का लिहाज करो
बेटा बहु सुनेंगे तो क्या कहेंगे…..?
वैसे मुझसे कई गुना ज्यादा तो तुम बोल गए हो अभी तक
थक गए होगे, बैठो, थोड़ा पानी पी लो, सुस्ता लो।
एक बात बतानी है धीरे से….
कल शाम जब तुम पास की दुकान में गए थे
तो बेटा आया था मेरे पास
कह रहा था – मां इस घर को बेच देते हैं
दिल्ली में तीन कमरों का फ्लैट ले लेते हैं।
छुट्टियां मिलती नहीं, बार-बार आ पाना मुश्किल है,
आप दोनों को भी वहीं ले चलते हैं।
इसीलिए कहती हूं…
वहां कांच की बंद खिड़कियां होंगी
इतने दरवाजे कहां होंगे।
इसीलिए बंद में जीने की आदत डाल लो
वरना मुझे ही कोसते रहोगे हमेशा।

नहीं नहीं,उससे कह दो मुझे कहीं नहीं जाना,
यहीं जन्म लिया, जीवन बिताया
अब यहीं की मिट्टी में मिल जाना।

सच, यही है जीवन के अंतर्द्वंद का ताना-बाना।

अमृता पान्डे

मैं हल्द्वानी, नैनीताल ,उत्तराखंड की निवासी हूं। 20 वर्षों तक शिक्षण कार्य करने के उपरांत अब लेखन कार्य कर रही हूं।