लघुकथा

विजयमाल

अभी-अभी दीपक ने मोबाइल पर संदेश देखे. ‘ऑस्ट्रेलियन पोस्ट’ समाचार पत्र की सुर्खी थी-
”भारतीय मूल के दीपक चावला को इस साल का सर्वश्रेष्ठ हॉकी प्लेयर चुना गया है.”
‘संदेश’ पत्रिका ने भी इसी खबर को पहली सुर्खी बनाया था.
”जीवन-मंत्र” अखबार ने दीपक को भारतीयों के माथे का तिलक की उपाधि से विभूषित किया था.

इन संदेशों-सुर्खियों ने उसे कई साल पहले की स्मृतियों में पहुंचा दिया था.

”मैं अपने पिताजी को तो वह कभी देख ही नहीं पाया था. मेरे जन्म से पहले ही एक सडक दुर्घटना में वे चल बसे थे, चाचाजी से ही मुझे पिता का प्यार भी मिल पाया था.” दीपक के अतीत की लौ जल रही थी.

”चाचाजी हॉकी खेलने के शौकीन थे. वे कभी ऑफिस से सीधे ही हॉकी खेलने चले जाते, कभी घर आकर जाते. दीपक उनसे साथ ले चलने को लिपट जाता था. किसी तरह मुझे मनाकर वे जा पाते. मौका मिलते ही मैं चाचाजी की हॉकी स्टिक को बड़े चाव से छूता-चूमता था. कभी-कभी कहता, ”मैं भी हॉकी प्लेयर बनूंगा.” स्मृति मुखर हो उठी थी.

”थोड़ा बड़ा होकर मैं सचमुच चाचाजी के साथ हॉकी खेलने भी लगा था. फिर चाचाजी तो ऑस्ट्रेलिया चले गए, मैं अकेला पड़ गया या और बार-बार फोन पर चाचाजी से कहता- ”चाचाजी, मुझे भी ऑस्ट्रेलिया बुला लीजिए, मैं आपके साथ हॉकी खेलूंगा.” मन-मंथन जारी था.

”शिद्दत से मेरे हॉकी-प्रेम से शायद चाचाजी को आभास हो गया, कि सचमुच एक दिन मैं एक बड़ा हॉकी प्लेयर बन पाऊंगा. मौका मिलते ही उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए ऑस्ट्रेलिया बुला लिया. मैं मन लगाकर पढ़ भी रहा था और स्कूल में हॉकी-क्लब का मेम्बर भी बन गया. अब तो मेरा सप्ताहांत भी हॉकी के हवाले हो गया.” उसके विचार आगे सरकते रहे.

”चाचाजी मेरे हॉकी गुरु भी बन गए थे. हॉकी गुरु ही क्यों, सब कुछ तो मैंने चाचाजी से ही सीखा था!” मंथन अब आभार लग रहा था.

”चाची जी गृहिणी थीं, तब भी चाचा जी उनके हर काम में हाथ बंटाते थे. कभी चाय बनाना, कभी नाश्ता बनाना, कभी वाशिंग मशीन चलाना वे चलते-फिरते कर लेते.” मैं देखता था.

कभी-कभी मैं पूछ बैठता- ”चाचा जी, चाची जी तो घर में ही रहती हैं, फिर भी आप घर के काम में उनकी मदद क्यों करते हैं?”

”बेटा, यहां सारा काम खुद ही करना पड़ता है. पहली बात तो हम गृहिणी के काम को उतना महत्त्व नहीं देते, जितना देना चाहिए. सारा दिन खटने के बाद भी लगता है, घर का काम ही तो किया है, कौन-सी नौकरी-कमाई की है! बहुत मुश्किल काम है यह.” चाचा जी के नेक अनुभवी विचारों से मैं अभिभूत था.

”दूसरे हमको सब काम आना चाहिए. कल को हमारी कहीं और पोस्टिंग हो जाए या किसी हॉकी मैच में जाना पड़े, तो सब काम खुद ही करना पड़ेगा. जानते तो हो यहां श्रमिक मिलते ही नहीं हैं और मिलते भी हैं तो बहुत महंगे. उनके पीछे घूमेंगे या ऑफिस-हॉकी संभालेंगे?” चाचा जी ने सच ही तो कहा था!

”मेरी बुद्धि की लौ तेज हो गई थी, मैंने भी सब कुछ सीख लिया था, आज यहां ऑफिस-हॉकी संभालते हुए सब काम आ रहा है. अपना हाथ जगन्नाथ!”

तभी मोबाइल पर मित्रों के बधाई के संदेश चमकने लगे. विजयमाल की बधाई तो बनती ही थी न!

जल्दी से तैयार होकर दीपक चाचा जी के चरण स्पर्श करने चल पड़ा. आसमान की ऊंचाइयों को छू पाने की प्रतीक यह विजयमाल उन्हीं के पदचिह्नों पर चलने की बदौलत ही तो हासिल हुई थी!

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “विजयमाल

  • लीला तिवानी

    परस्पर आत्मीय प्रेम और विश्वास ही विजयमाल बन जाते हैं.

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