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विचार विमर्श- 6

इस शृंखला के छठे भाग में कुछ विचार होंगे और उन पर हमारा विमर्श होगा. आप भी कामेंट्स में अपनी राय लिख सकते हैं-

1.अच्छे आदमी राजनीति से दूर क्यों होते जा रहे हैं?

कुछ हद तक यह बात सत्य है, कि अच्छे आदमी राजनीति से दूर होते जा रहे हैं. अच्छे उद्देश्य के लिए अच्छा माध्यम चाहिए. राजनीति में आने वाला राजनेता कहलाता है. आज राजनीति में विश्वास का संकट है. कोई किसी पर विश्वास ही नहीं करता. समाज में ‘राजनेता’ शब्द को नकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जाता है. राजनेता की एक नकारात्मक छवि बनी हुई है. जैसे उसे चतुर और कुछ अधिक ही चालाक होना चाहिए. उसे ग़लत काम ज्यादा करना चाहिए. यही दृष्टिकोण अच्छे आदमियों को राजनीति से दूर करता जा रहा है. फिर भी अच्छे आदमी राजनीति से संपर्क बनाए रखने में आ रहे हैं. जनता उन्हें पहचान देती है और उनकी छवि साफ-सुथरे राजनेता की बनी रहती है. राजनीति से महज विवादास्पदता और सही बातों पर विरोध करना रुक जाए या कम हो जाए, तो सम्भवतः अच्छे आदमी राजनीति से दूर नहीं होंगे.

2.अतीत की बातों पर क्रोध क्यों आता है?

कहते हैं बीते कल की बात सपना, आने वाले कल की बात कल्पना, आज का पल ही है अपना. अब अतीत यानी कल की बात सपना है, तो सपने तो याद आते ही हैं, अतीत भी याद आता है. अतीत को हम यादों का झरोखा, स्मृतियों का सागर भी कह सकते हैं. ये यादें, ये स्मृतियां हमारी अनमोल पूंजी होती हैं, जो हमें कभी आल्हादित करती हैं, तो कभी क्रोधित भी करती हैं. स्मृतियां मधुर होती हैं, तो मन को मधुरिम कर जाती हैं और कटु होती हैं, तो मन को कटु-कसैला-कष्टमय-क्रोधित कर जाती हैं. अनेक बार अतीत की बातों पर क्रोध तब भी आता है, जब हमको लगता है, कि हमने सही समय पर सही प्रतिकार नहीं किया, अन्यथा आज हमें जो दुष्परिणाम भुगतना पड़ रहा है या जो हादसा हुआ है, वह नहीं होता. निष्कर्ष यही निकलता है, कि अगर अतीत हमारे मन की अपेक्षाओं के प्रतिकूल हो, तो हमें क्रोध आना अवश्यम्भावी है.
अतीत को भूत भी कहते हैं, भूत से डर लगना स्वाभाविक है. पर जब समझ में आ जाए कि भूत होता ही नहीं हैं, तो भूत का भय भी समाप्त हो जाता है. अतीत की कटु स्मृतियों से डरने के बजाय सबक भी सीखा जा सकता है.

3.क्या जिंदगी से बड़ी होती हैं आदतें?

आदतें जिंदगी से बड़ी नहीं होती हैं, लेकिन आदतें तो आदतें ही होती हैं, बदलते-बदलते ही बदल पाएंगी. पहले तो आदत पड़ने का पता नहीं चलता, लेकिन जब तक किसी आदत के पड़ने का पता चलता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. न जाने कब पहले दांएं पांव में मौजा पहनने की आदत पड़ती है, लेकिन पहले दांएं पांव में ही मौजा पहनने की आदत वालों को देखा गया है. इसी तरह सोते-बैठते हमेशा तकिये को अपने साथ रखना, बाहर जाते वक्त हाथ में छाता या बैग वगैरह टांग लेना, नाखून चबाना, एक ही बात को दोहराना, दिन में कई-कई बार हाथ धोते रहना आदि आदतें भी देखी जाती हैं. ये आदतें तो भले ही नुकसानदेह न हों, लेकिन बेवजह गुस्सा करने, धूम्रपान करने, नशा करने, मार-पीट करने जैसी आदतें जिंदगी में जहर घोल देती हैं. आदतों की ऊर्जा बड़ी लचीली होती है. वे उतनी अपरिवर्तनीय नहीं होतीं, जितनी दिखती हैं. सजग रहकर प्रयास करने पर बुरी आदतें बदली जा सकती हैं. नशे के दुष्परिणामों पर सोचे-समझे तो नशे की आदत वाला शराब छोड़ भी सकता है, भले ही उसे यह कठिन लगे. पढ़ाई छोड़ देने वाला बच्चा नई आदतें डाल कर एक सफल संगीतकार भी बन सकता है, लेकिन जिनको बेवजह गमों में डूब जाने की आदत हो, उनका क्या किया जाए! गम सबकी जिंदगी में आते रहते हैं, बिंदास रहने वाले लोगों का मानना है-
”क्या बिगाड़ेगी गमों की आंधी हमारा,
अपनी तो आदत है मुस्कुराने की.”

4.क्या हताशा न होना ही सफलता का मूलमंत्र है?

हताशा न होना ही सफलता का मूलमंत्र भले ही न हो, पर हताशा न होना सफलता की प्रथम सीढ़ी अवश्य है. यदि हम किसी कारणवश अपना लक्ष्य प्राप्त करने में विफल हुए हों, तो निराशा के समंदर में गोते लगाने की बजाय यह विचार मन में लाएं, कि विफलता में ही सफलता के सूत्र छिपे हैं. हताशा न होने से हम विफलता के कारणों पर चिंतन-मनन-मंथन कर सकेंगे, कोई अन्य विकल्प ढूंढ सकेंगे और सफलता की ओर कदम बढ़ा सकेंगे. युवाओं की तरह कुछ बच्चों को भी पढ़ाई-लिखाई में असफलता मिलती है या किसी गलती पर उन्हें बड़ों की डांट मिल जाती है, तो वे हताश-निराश हो जाते हैं. कुंठित होकर वे कुछ गलत कदम भी उठा लेते हैं. यह सही नहीं है. बच्चों के मामले में माता-पिता की जिम्मेदारी बनती है कि वे छोटी उम्र से ही बच्चों के मन में यह बात बिठाना शुरू कर दें कि मानव जीवन अनमोल है और हर व्यक्ति को कुछ विशेष करने के लिए ही यह जीवन मिला है. असफलता या सफलता के पीछे अपना जीवन व्यर्थ न करें. ऐसे विचार संस्कारित करने पर हताशा नहीं होगी और हताशा न होना सफलता का मूलमंत्र बन सकता है.

मन-मंथन करते रहना अत्यंत आवश्यक है. कृपया अपने संक्षिप्त व संतुलित विचार संयमित भाषा में प्रकट करें.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “विचार विमर्श- 6

  • लीला तिवानी

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