कविता

कविता का उद्भव

मानस-पटल पर भावनाओ का जब होता है प्रवाह
कोरे कागज पर कुरेदने लगती है कलम अपने-आप
घिस-घिसकर कलम देता हूँ शब्दो को तीक्ष्ण धार
अबाह स्याह से कविता को देता हूँ एक समुचित आकर
करुण,श्रृंगार,वीर व हास्य का अपनाता हूँ सदा बहुमार्ग
कुछ यू भरता हूँ हिय में उपजे तीव्रगामी तरंगों का दराज
अक्षरों के खेत मे बैठ सींचता हूं अंकुरित शब्दों का फसल
ऐसे ही नही उपजती कविता की धारदार व ओजस्वी उपज
बहु आभासी लम्हे जीने का हुनर पा बैठा हूँ एक ही पल में
ऐसी अद्भुत घटना घटित होती है सिर्फ कवि के आत्मबल में
अंतरिक्ष में डूबते चन्द्रमा सा खो जाता हूँ शब्दो की खोज में
शब्दो का तरकश आ बैठता है,कवि के अतुलित व शुचि गोद में
पँक्ति के एक सिरे पर बैठ दूसरे सिरे पहुचने का ढूंढता हूँ तरकीब
मनतंत्र में बिखरे पड़े शब्दो के तरकश का इत्मीनान से करता हूँ तफ़्तीश
चमकते चाँद व दहकते सूरज की देखकर दिन-रात की अद्भुत लीला
कागज पर कलम दौड़ा देता हूँ जमी हुई स्याह को कर के गिला
अंतर्मन की तरंगें व कलम के बीच जब छिड़ जाता है तीव्र द्वंद
लहलहाती कविता की ओजस्वी,नुकीली धार हो जाती है कुंद।।

~आशुतोष यादव

बलिया,उत्तर प्रदेश

आशुतोष यादव

बलिया, उत्तर प्रदेश डिप्लोमा (मैकेनिकल इंजीनिरिंग) दिमाग का तराजू भी फेल मार जाता है, जब तनख्वाह से ज्यादा खर्च होने लगता है।