धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर अनादि काल से हमारा रक्षक, पालक व सुहृद मित्र है

ओ३म्

मनुष्य प्रायः अपने माता, पिता, आचार्यों तथा सगे सम्बन्धियों को ही अपना मानते हैं। ईश्वर के विषय में मनुष्यों के भिन्न-भिन्न विचार होते हैं। अधिकांश को ईश्वर के सत्यस्वरूप गुण, कर्म स्वभाव का ज्ञान नहीं होता। वह ईश्वर की परम्परागत विद्या कुछ अविद्या से युक्त गुणोपासना आदि कर लेते हैं और इसी से अपने कर्तव्य की पूर्ति मान लेते हैं। ऐसा करने से मनुष्य को कुछ लाभ हानियां आदि भी होती हैं। मनुष्य को पूर्ण लाभ तभी होता है कि जब वह किसी सत्तावान पदार्थ के सभी व अधिकांश गुणों को जानकर उससे यथायोग्य लाभ प्राप्त करे। परमात्मा भी एक अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, चेतन एवं सर्वव्यापक सत्ता है। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, सृष्टि की उत्पत्ति, पालन तथा प्रलय कर्ता तथा अनन्त संख्या वाले चेतन जीवों के कर्मों के अनुसार उन्हें जन्म व आयु देने सहित सुख व दुःख प्रदान करने वाली सत्ता है। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव संख्या की दृष्टि से अनन्त हैं। अजन्मा होकर भी वह इस सृष्टि को बनाता व पालन करता है।

हमारा यह सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, नक्षत्र, वायु, जल, अग्नि, आकाश, पर्वत, समुद्र नदियां आदि उसी ने बनाई हैं। सभी वनस्पतियां, ओषधियां, मनुष्य, पशु आदि प्राणी जगत भी उसी ने अपने विज्ञान शक्तियों से बनाये हैं। वह सृष्टि काल में एक क्षण भी विश्राम नहीं करता। यदि एक क्षण भी विश्राम करे तो प्रलय हो जाये। इस सृष्टि को उसी ने धारण किया हुआ है। इन गुणों से युक्त परमेश्वर ही हमारा सनातन, अनादि एवं नित्य माता, पिता, आचार्य, बन्धु, सखा, मित्र, रक्षक, प्रेरक, दुःख निवारक, सुख प्रदाता, मोक्ष दाता है। हमारे जीवन में हमारे लिए परमात्मा से अधिक कुछ भी जानने व प्राप्त करने योग्य पदार्थ नहीं है। ईश्वर को जान लेने पर यह सारा संसार जान लिया जाता है। ईश्वर व आत्मा को जाने बिना जो ज्ञान प्राप्त होता है वह उपयोगी तो अवश्य होता है परन्तु उससे हमारे जीवन की सभी समस्याओं का निदान नहीं होता। ईश्वर को जान कर हम विद्वान बनते हैं और अपना यह जीवन ईश्वर आदि विषयक ज्ञान को प्राप्त होकर सुख पूर्वक व्यतीत करते हैं। ऐसा करने से हमारे परजन्म वा परवर्ती जन्म भी सुधर जाते हैं व हमें उत्तम मनुष्य योनि प्राप्त होती है। योगी बनकर ईश्वर का साक्षात्कार कर लेने वाले मनुष्य मोक्ष के अधिकारी बन जाते हैं जो जन्म व मृत्यु के बन्धन से छूट कर ईश्वर के सान्निध्य को प्राप्त होकर 31 नील से अधिक वर्षों तक निश्चिन्त होकर आनन्द का भोग करते हैं। मोक्ष की प्राप्ति करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य होता है। स्त्री व पुरुष दोनों ही ईश्वर को जानकर और ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित परोपकार, दान व वेदानुकूल सभी कर्मों को करके मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। मोक्ष की प्राप्ति ही वास्तविक पारलौकिक स्वर्ग कहा जा सकता है। स्वर्ग सुख विशेष व चिन्ताओं से मुक्त जीवन को भी कहते हैं। स्वर्ग की उच्चतम स्थिति मोक्ष की प्राप्ति ही होती है। इसके लिये सभी मनुष्यों को वेदानुकूल जीवन व्यतीत करना चाहिये जिसमें ईश्वर की ज्ञानपूर्वक उपासना व अग्निहोत्र आदि यज्ञों को करने का मुख्य स्थान है।

मनुष्य जीवन की उन्नति ज्ञान श्रेष्ठ कर्मों को करने से होती है। वास्तविक ज्ञान वही है जो हमें वेदाध्ययन वेदोपदेश का श्रवण करके प्राप्त होता है। वेदाध्ययन से हमें ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप का ज्ञान होता है। इससे हमें अपने कर्तव्यों अकर्तव्यों का ज्ञान भी होता है। वेद मनुष्यों को ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन व्यतीत करने की शिक्षा प्रेरणा करते हैं। वेदों का अध्ययन करने पर हमें पंचमहायज्ञों को करने की प्रेरणा मिलती है। पंचमहायज्ञ करने से मनुष्य की आत्मा की उन्नति होती है। बिना पंचमहायज्ञ किये आत्मा की वह उन्नति नहीं होती जो इन यज्ञों को करने से होती है। पंच महायज्ञों में प्रथम यज्ञ ब्रह्मयज्ञ वा सन्ध्या होता है। सन्ध्या भलीभांति ईश्वर का ध्यान करने को कहते हैं। ध्यान में हम ईश्वर को अनादिकाल से अपने ऊपर किये जा रहे उपकारों को स्मरण करते हैं। ईश्वर के गुणों व कर्म आदि का भी ध्यान व चिन्तन भी ईश्वर की उपासना करते हुए करते हैं। ईश्वर का उसके उपकारों के लिये धन्यवाद भी किया जाता है। संसार में सर्वमान्य नियम है कि जो मनुष्य किसी से उपकृत व लाभान्वित होता है, उसे उसके प्रति कृतज्ञता रखनी चाहिये और उसका धन्यवाद करना चाहिये। ऐसे उपकारी मनुष्यों के साथ किसी को द्रोह, अवज्ञा व उपेक्षा आदि नहीं करनी चाहिये। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना व ध्यान करने से मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। मनुष्य की आत्मा का अधिकतम वा पूर्ण विकास होता है। वह ईश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ हो जाता है। इस स्थिति को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का सही अर्थों में उद्देश्य व लक्ष्य होता है। सभी मनुष्यों को ईश्वर की उपासना पर विशेष ध्यान देना चाहिये। मत-पन्थों की अविद्यायुक्त परम्पराओं में न फंसकर वेदधर्मयुक्त मार्ग को ही अपनाना चाहिये। वेदों व वैदिक साहित्य का स्वाध्याय करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये। इससे मनुष्य का कल्याण होना निश्चित होता है।

पंचमहायज्ञों में दूसरा यज्ञ देवयज्ञ अग्निहोत्र कहलाता है। इस यज्ञ में भी यज्ञकर्ता ईश्वर की उपासना करते हुए वायु के विकार दूर करने तथा वर्षा जल को शुद्ध करने वाले सुगन्धित घृत, रोगनाशक ओषधियों, वनस्पतियों, स्वास्थ्यवर्धक पदार्थों आदि की यज्ञकुण्ड की अग्नि में मन्त्रों को बोलकर आहुतियां देते हैं। इससे वायु जल की शुद्धि होती है। आत्मकल्याण होता है ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है। मनुष्य के रोग दूर होते रोगों से रक्षा होती है। मनुष्य स्वस्थ एवं सुखी रहता है। जीवन में उन्नति होती है। अभाव कष्ट दूर होते हैं। यज्ञ करना भी ईश्वर की उपासना व ईश्वर के साक्षात्कार में सहायक होता है। अतः सभी मनुष्यों को प्रतिदिन प्रातः व सायं ऋषियों द्वारा निर्धारित यज्ञ परम्परा का पालन करना चाहिये। प्राचीन वैदिक काल में लोग यज्ञों का नित्य प्रति अनुष्ठान करते थे जिससे सारा देश सुखों से युक्त तथा दुःखों से मुक्त था। यज्ञ करने से अनेकानेक लाभ होते हैं। मनुष्य की कामनाओं की पूर्ति व सिद्धि भी होती है। अतः सभी लाभों को प्राप्त करने के लिये हमें यज्ञ अवश्य ही करना चाहिये। यह भी जान लें कि यज्ञ करने की आज्ञा स्वयं परमात्मा ने वेदों में की है। परमात्मा की आज्ञाओं का पालन करना सभी मनुष्यों का परम पुनीत कर्तव्य है। अतः सबको ही यज्ञ करना चाहिये। अन्य तीन यज्ञ पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेवयज्ञ हैं। पितृ यज्ञ में माता, पिता की श्रद्धापूर्वक सेवा करके उन्हें सन्तुष्ट व सुखी किया जाता है। अतिथि यज्ञ में विद्वान व समाज के उपकारी वैदिक विद्वान वृद्ध जनों को अतिथि मानकर उनका पूजन व सेवा की जाती है। उन्हें दान व दक्षिणा देकर उनको सुखी व सन्तुष्ट किया जाता है। ऐसे विद्वान अतिथियों का आतिथ्य कर हम उनसे उपदेश ग्रहण कर अपने जीवन को सुखी व उन्नत करते हैं। बलिवैश्वदेव यज्ञ में हम पशु व पक्षियों आदि को चारा खिलाते व उनका पालन कर उनके साथ सत्पुरुषों जैसा व्यवहार करते हैं। मांसाहार आदि मानसिक रोगों से दूर रहते हैं। इसी का नाम बलिवैश्वदेव यज्ञ होता है।

ईश्वर अनादि काल से हमारा सुहृद मित्र है। वह हमारा सखा बन्धु है। ईश्वर हमें अपनी ओर से सुख आनन्द देता है। हमारे लिये ही वह प्रत्येक कल्प में इस सृष्टि का निर्माण कर हमारे कर्मानुसार हमें जन्म देता है। अनादि काल से हम इस सृष्टि में जन्म मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। इस जीवन पूर्व जन्मों में हमने जो सुख भोगे हैं वह सब हमें परमात्मा ने ही प्रदान किये थे। परमात्मा हमारे माता, पिता आचार्य के समान है। उसी की कृपा से हमें जीवन में माता, पिता, आचार्य, मित्र बन्धु आदि सृहृद जन प्राप्त होते हैं। हमारा जीवन सुख व कल्याण को प्राप्त होता है। भविष्य में भी हमें ईश्वर से ही सुख व आनन्द की प्राप्ति होनी है। ऐसे ईश्वर को हमें सद्ग्रन्थों यथा वेद, वेदभाष्य, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, वेदमंजरी, श्रुति सौरभ, ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं लेखराम आदि का जीवन चरित पढ़कर प्राप्त होना चाहिये। इसी से हमारा जन्म व जन्मान्तर में कल्याण होगा। हम सुखी होंगे। ऐसा करते हुए ही हम परम पद व उन्नति के शिखर मुक्ति तक पहुंच सकते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य