कविता

इंसान बनो

जीवन भर हम खुद को
मकड़जाल में उलझाए रखते हैं,
सच तो यह है कि
हमें बनना क्या है?
ये ही नहीं समझ पाते।
मृग मरीचिका की तरह
भटकते रहते हैं,
इंसान होकर भी
इंसान नहीं रहते हैं।
हम तो बस वो बनने की
कोशिशें हजार करते हैं,
जो हमें इंसान भी
नहीं रहने देते हैं।
हम खुद को चक्रव्यूह में
फँसा ही लेते हैं,
और इंसान होने की
गलतफहमी में जीते रहते हैं।
काश ! हम इतना समझ पाते
इंसानी आवरण ढकने के बजाय
वास्तव में इंसान बन पाते,
काश ! हम अपने विवेक के
दरवाजे का ताला खोल पाते
जो बनना है वो तो हम बन ही जायेंगे
मगर अच्छा होता
हम पहले इंसान तो बन पाते।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921