गीत/नवगीत

साँसे रुक जायेगी….!

मानुषों के कलुष भाँपते- भाँपते।
साँसे रुक जायेगी झाँकते-झाँकते।।
कैसा परिवेश बदला है लोगों ने अब।
कैसा आघात पाया है लोगों ने अब।।
खेल प्रकृति से तूने गज़ब कर दिया,
जंगलों  को  यूँ  ही  छांटते-  छांटते।।
    साँसे रुक जाएगी झाँकते -झाँकते।
ए मानव!जरा अब संभल के तू चल।
जिन्दगी हो रही,देख कितनी विकल।।
नव्य की खोज में, तूने क्या कर दिया?
शांति  हो  चित्त  में, टांकते- टांकते।।
   साँसे रुक जायेगी झाँकते- झाँकते।
अपनी संवेदनाओं को कर के मुखर।
पाश्विकव वृत्तियों का किनारा यूँ कर।।
हो  दया  जीवों  पर, मन  रहे  उपवन,
नीर तन का सूखे न, हाँफते -हाँफते।।
    साँसे रुक जायेगी झाँकते -झाँकते।
जल का हो संचयन,शुद्धता हो वरण।
लहलहाती  धरा  की, हैं चूमें चरण।।
जीव- जंगल बचे, हों  सभी  गेह में,
कम  हो  गहराइयाँ, नापते- नापते।।
   साँसे रुक जायेगी झाँकते- झाँकते।
— माधवी उपाध्याय

माधवी उपाध्याय

जमशेदपुर, झारखंड