कुतर्कों का दंगल
धर्मविहीन समाज के
निर्माण में
सादर सहयोग करें !
आप कैसे कवि हैं !
‘मुक्तिबोध’ को
नहीं समझ पा रहे हैं ?
हमें लगता है,
आप ‘पर….भाष’
बुद्धिजीवी भी नहीं हैं !
क्यों ? श्रीमान !
यह कहकर
आप ‘अहं’ का
परिचय दिया हैं !
आपने क्या किया है
अबतक ?
जो उद्धरण बनाऊं !
फ़ख़्त, नील बटा सन्नाटा !
क्या-क्या लिखते हो जी !
प्रवचन तो आप झाड़ते हैं !
कभी आप,
तो कभी तुम !
आपका दर्शन
आपको सलामत !
बचकाना या बच काना !
जैसा कि आपने
अभी-अभी सीख आये !
आप समीज पहन लो !
मुँह कब से मियाँ हो गया जी,
जो सुगर पेशेंट हो गया !
जय हो,
भय हो,
क्षय हो….
आज दिन भी मंगल है
और हम दोनों
कुतर्कों के दंगल में हैं !