कविता

घर क़ी तन्हाई

छिपती नहीं घर क़ी तन्हाई!
मैंने घर मे कहाँ ना छुपाई..
कभी नकली फूल कभी,,
बिछा ली फर्श पर चटाई..
कभी तस्वीरें कभी दीवारों की
बदल दी जाती सारी पुताई..
मगर छिपती नहीं घर की तन्हाई..
बिछा दी चादर,, रख दिए तकिये भी..
बिस्तर पर पसर गयी जैसे ओढ़ के रजाई..
आह!! छिपती नहीं क्यों घर की तन्हाई..
कमरे के पर्दे,, छत के फानूस देखते है..
सांझ जैसे छोड़ गयी हो अपनी परछाई..
उफ्फ!! छिपती नहीं ये घर की तन्हाई..
कुछ यादों के साये घूमते है मेरे पीछे पीछे..
अनसुना किया, आवाज अकेलेपन क़ी दी सुनाई..
कैसी जिद्दी है ये,, छिपती नहीं घर क़ी तन्हाई!!
— प्रियंका गहलौत

प्रियंका गहलौत

मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश Blog - https://www.facebook.com/मेरी-लेखनी-102723114960851/