गीतिका/ग़ज़ल

बसंत रुत आ गई

लो बसंत रुत आ गई हां बसंत रुत आ गई
पीली पीले सरसों फूले पुरवाई बहका गई।

फूल फूल पर कितनी झूमे भंवरा गुनगुन गाए
बेर लगे बेरीयों में और अमराई बौरा गई।

नव कोपल से सजी शाखाएं मंद मंद कलियां मुस्काएं
रंग बिरंगे फूल खिले मौसम पे जवानी छा गई।

हरे हरे पत्तों में छिप कर कोयल कूह कुह करती है
कोयल की मीठी बोली मन के तार हिला गई

दिन की धूप लगे निराली रात की बेला शीतल प्यारी
उष्म सीत का अद्भुत संगम जीवन का हाल सुना गई

पेड़ से लिपटी बेले शर्माती सकुचाई सी
मौन स्वरों में हमको प्रीत की रीत सिखा गई

वह सुगंधित पुरवाई जब रुत ने ली अंगड़ाई
धरती नी श्रृंगार किया दुल्हन सी शर्मा गई

काश के ऐसा होता, होता बारह मास बसंत का मौसम
हर रितु से ज़्यादा जानिब हमको यह रुत भा गई।

— पावनी जानिब सीतापुर

*पावनी दीक्षित 'जानिब'

नाम = पिंकी दीक्षित (पावनी जानिब ) कार्य = लेखन जिला =सीतापुर

One thought on “बसंत रुत आ गई

  • डॉ ज्योत्स्ना शर्मा

    मोहक वसंत

Comments are closed.