कविता

मैं मजदूर हूँ

मैं मजदूर हूँ भगवान की निगाह से दूर हूँ
खुले आकाश में मैं तप रहा हूँ
नित्य भोर में मैं प्रभु को जप रहा हूँ ।
कंधों पर रखा फावडा खेतों में कर रहा प्रहार
सुबह से शाम तक कष्ट भरी मेहनत करता हूँ
फटे लिबास को पहनकर ।
जीवन का अपना लक्ष्य बनाया तकलीफें सहनकर
विभिन्न क्षेत्रों में मजदूरियाँ करते फिरते हैं
तिनका‌‌-तिनका सींचकर बनाया अपना घर ।
चैत माह की कड़क तिलमिलाती धूप
तप रहा है इस कठिन डगर में मजदूर
उड़ती हुई धुल मिट्टी में न दिखता रूप।
श्रम करने वाला व्यक्ति होता है मजदूर
गरीबी और शोषण ने मरने पर कर दिया है मजबूर
उनकी समस्त आर्थिक स्थिति है मजदूरी पर निर्भर ।

— कल्पना गौतम

कल्पना गौतम

उत्तर प्रदेश की निवासी हैं। हिन्दी में पीएचडी कर रही हैं।