भाषा-साहित्य

ऐसे ही श्रृंगार को नहीं कहा जाता रसराज

यूँ तो दुनिया में जितने भी रंग हैं, सब प्रकृति के अंग हैं, यही रंग जब नीलाकाश में इंद्रधनुष का रूप लेते हैं तो मानव जाति को स्वतः ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं। यूँ तो चन्द्रमा भी अपने रूप की कलाओं के साथ हर पल ब्रह्मांड में विचरण करता है, लेकिन जब एक माह बाद अपने पूर्ण यौवन के साथ उदित होता है तो सरोवर की कमलिनी ही नहीं न जाने  प्रकृति के कितने ही अंग, जड़ औऱ चेतन मचल उठते हैं। स्वयं सागर भी अपना धैर्य खो देता है और मचल जाता है, दोष सागर का नहीं चंद्रमा के अद्वितीय सौंदर्य का है। सागर जैसा धीर, अधीर हो उठता है, उसके भीतर उठती लहरें उसके आलिंगन को  मचल उठती हैं।
सौंदर्य परमात्मा का दिव्य उपहार है, प्रकृति स्वयं प्रतिदिन नव पुष्प – पल्लव से अपना श्रृंगार करती है। प्रसाद ने कामायनी में लिखा कि “प्रकृति के यौवन का श्रृंगार करेंगे कभी न बासी फूल”।
दुनिया में कौन है जो रति -कामदेव  को नहीं जानता, कौन है जिन्होंने उर्वसी, मेनिका, रम्भा का नाम नहीं सुना। बड़े – बड़े देवता, ऋषि, मुनि, तपस्वी इस रूप से मोहित हुए स्वयं को दृण नहीं रख पाए।
स्वयं चन्द्रमा अपने गुरु ब्रहस्पति की पत्नी तारा के रूप पर मोहित हो गया। भगवती चरण वर्मा ने अपने काव्य नाटक ‘तारा’ में लिखा –  तारा जब चन्द्रमा की बाहों में सिमट जाना चाहती है..
” है धर्म मार्ग पर ही करुण व्यथा
तो फिर आओ चलें पतन को ही चलें”
अयोध्या के राजकुमार राम ने  गौरी पूजन को आई सीता के आभूषणों की ध्वनि सुनी, राम का हृदय  स्पंदित हो गया, तुलसी ने रामचरितमानस के बालकांड में लिखा-
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥
 और जैसे ही राम ने सीता को निहारा राम के ह्रदय में सीता उतर गयी।
कृष्ण देखते ही राधा पर रीझ गए।
कृष्ण राधा से कहते हैं तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं
खेलन चलो संग मिल जोरी
गौतम की पत्नी अहल्या के रूप पर आसक्त होकर इंद्र विवश हो गया और विश्वामित्र की साधना मेनिका के रूप पर न्यौछावर हो गई। स्वयं इंद्र की अप्सरा अर्जन के रूप पर मोहित होकर प्रणय निवेदन करने लगी और जब अर्जुन ने अस्वीकार कर दिया तो अर्जुन को नपुसंकता का श्राप तक दे डाला।
प्रश्न यह है कि आखिर ऐसा क्या है जो हर मुख पर नहीं होता, आखिर ऐसा क्या है जो किसी  के रूप में ही  विशेष मुखाभा दमकती है। निःसंदेह रूप दो तरह के होते हैं एक जो आकृष्ट करते हैं,  किसी कृत्रिमता से किसी प्रसाधन सज्जा से, जो क्षणिक होता है औऱ रूप उतरते ही आकर्षण विहीन हो जाता है। दूसरा परमात्मा प्रदत्त सौंदर्य स्थायी होता है प्रभावित करता है, ऊर्जा देता है, उसके हृदय में भावों का दिव्य सौन्दर्य होता है वही भावों का सौंदर्य मुखाभा पर दैदीप्त होता है।
 श्रृंगार के कवि अद्वितीय रूप  को देखते ही उनकी कलम स्वयं बोल उठती है, कल्पना पंख खोलकर उपमान खोजने निकल पड़ती है,
एक कलम जब इस भांति लिखती है तो पाठक के हृदय भूमि पर प्रेम के बीज अंकुरित हो जाते हैं, कालिदास, विद्यापति, तुलसीदास, सूरदास, जायसी घनानंद बिहारी ने अद्भुत श्रृंगार का सृजन किया जो आज हिंदी के पाठ्यक्रम का हिस्सा है।
यहाँ एक उदहारण देखें- अद्भुत रूप दिव्य सौंदर्य मानो स्वयं रति पृथ्वी पर उतर आई हो। गोलानन की मुखाभा मानो शरद यामिनी का चन्द्रमा हो।  खुली लहराती  काली सर्पिणी सी  घुंघराली अलकें मानो स्वयं चंद्रमा से अमृत लेने खडी हों ! अथवा अमावस स्वयं चन्द्रमा के पास आकर कह रही हो मेरा अस्तित्व अब नहीं रहेगा।
आंखें  मानो मणि जैसे स्वर्ण में नीलम जड़ी हों।  अधरों की अरुणिमा औऱ मुस्कान मानो प्रभात की लालिमा को लज्जित कर रही हो।
            आचार्य भरतमुनि रस के प्रतिष्ठापक हैं, रस मानव – हृदय के लिए उतना ही आवश्यक है जितना शरीर के लिए जल। अतः समस्त रसों में श्रृंगार रस राज है और उक्त विवेचन से सिद्ध हो जाता है कि श्रृंगार को ऐसे ही रसराज नहीं कहा जाता।।
— डॉ. शशिवल्लभ शर्मा

डॉ. शशिवल्लभ शर्मा

विभागाध्यक्ष, हिंदी अम्बाह स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय, अम्बाह जिला मुरैना (मध्यप्रदेश) 476111 मोबाइल- 9826335430 ईमेल-dr.svsharma@gmail.com