कविता

चलो फिर से बच्चा बन जायें

चलो फिर से बच्चा बन जायें,
चलें गांव वापस खुशियां मनायें।
हो प्रकृति से सीधा अपना नाता,
सुबह खेत खलिहानों तक जायें।
घूमें गांव की उन पगडंडियों पर,
बचपन में स्कूल तक जाती जो राहें।
वो तालाब पोखर ठाकुर की कुईयां,
पनघट का उत्सव फिर देख आयें।
अमुवा की डाली पर झूले का डलना,
पे़गें बढ़ाकर फिर गीत मिलके गायें।
रहट का ठंडा पानी और बैलों की घंटी,
वहीं दोपहर में मट्ठे से रोटी भी खायें।
बहुत देख ली है शहर की भी जिन्दगी,
चलो फिर से गांव की ओर लौट जायें।
भूल गये स्वाद फूट कचरी सैंध का,
गांव में उगायें बच्चों को भी खिलायें।
नहीं जानते आज के बच्चे बेरी क्या,
खट्टे मीठे जंगली वो बेर भी खिलायें।
जिसके आंगन में पेड़ वो वाली ताई,
दो गाय वाली चाची से मिल आयें।
गांव जो है बस एक बड़ी सी हवेली,
रिश्तों से मिल फूलों से खिल जायें।
वो कमला बुआ आज भी याद आती,
रोटी पर मक्खन फिर खाकर आयें।
जो घुमाते थे मुझको कांधे पर बैठाकर,
बुढापे में काका को चलो हम घुमायें।
भले हों गयी गांव की गलियां भी पक्की,
दिल की कच्ची जमीं पर रिश्ते उगायें।
वो चुल्हे की रोटी, भूली बिसरी यादें,
बड़ी भाभी अब भी बनाकर खिलायें।
बहुत रह लिये शहर में परायों के बीच,
अपनों के बीच फिर गांव लौट जायें।
— अ कीर्ति वर्द्धन