चैतन्य महाप्रभु के शुरू किये गये बांग्ला संकीर्तन मंडली के 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मालदह के सुदूर पश्चिमोत्तर इलाके में प्रसिद्ध मूलगैन यानी Chief Master थे अटकू दर्फ़ी. बिंदास प्रतिभा लिए वह एक अच्छा नर्त्तक और सामाजिक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. जन्म बंगाल के पॉल राजवंश के वंशज में मुर्शिदाबाद से बैरिया, मालदह ज़िला में जा बसे मूर्तिकार तथा माटी शिल्पकार पिता श्रवण पॉल और माता शंकरी दर्फ़ी के यहां पाँच मार्च 1881 को ज्येष्ठ संतान के रूप में हुआ. वर्तमान में यह स्थान महानंदा तटबंध के पश्चिम पार बिहार के कटिहार जिले में है.
पिता के राजवंश से होने के कारण माँ की पारिवारिक उपनाम दर्फ़ी रखा और मालदह में शिक्षा ग्रहण किया. जब वे बाल्यावस्था में थे, तो उनके यहां रात्रिविश्राम को लेकर सुदूर पश्चिम के अतिथि अमृत पंडित ठहरे थे, जो कि नादिया जिला से गौरांग प्रभु के विचारों से प्रभावित होकर कीर्तनिया बन वापस अपने गाँव कई वाद्ययंत्रों और गायकों के साथ लौट रहे थे, बालक अटकू को यह भा गया और सीखने सीखाने की जिद कर बैठे. कई दिनों तक रियाज़ चला.
किशोरवय तक 18 वाद्ययंत्रों से मेल कराने में पारंगतता हासिल कर लिये तथा चैतन्य महाप्रभु के कीर्तन संस्कार में सबसे युवा मूलगैन हो गए. बाद में अमृत पंडित ने अपनी पुत्री मैनी की शादी अटकू से कर दिए.
कालान्तर में बांग्ला कीर्तन को अंगिका बोली में मिश्रितकर बाँग्लांगिका भाषा का ईजाद कर इसमें लोककीर्तन किया. संस्कृति लिए एक लोककीर्तन गीत का उदाहरण-
राजा पाखड़ जाकर नचबै रे, नचबै गयबै उछलबै रे, छेलै एक किशन कन्हैया, ओकर संगी चेतन भैया, मोरर पंख स खेलबै रे, बगिया म बहुत पाखर र गाछ, दुनिया क राजा छेके साँच, पूरब स पछिम जइबे रे, कि माखन चुरइबै, गोबर्धन उठइबै, राजा पाखड़ जाकर नाचबै रे, नाचबै गयबै उछलबै रे.