गीतिका/ग़ज़ल

उगा लें, चलो  अपने   हिस्से  का सूरज

धरा बिक चुकी अब गगन बिक रहा है,
हवा  बिक  रही है  चमन बिक  रहा है।
विवाहों   के  इस   ख़ुशनुमा   वक़्त  में,
सेहरे से  ज्यादा  कफ़न  बिक  रहा  है।
है    रहनुमा    जो    हमारे    शहर   के,
उन्ही की  रहम पर  अमन बिक रहा है।
गज़ब  शौक  है यह  अमीरी  भी  यारों,
दवा  की  आड़  में  जहर  बिक रहा है।
नहीं    देवता   जो    करे   क्षीर   मंथन,
नहीं  कोई  सत्यम्  शिवम् दिख रहा है।
बचा करके रखना  निगाहों  को अपनी,
गिद्धो  का  बसता  शहर  दिख  रहा है।
चलो   लौट   आये    पुराने    नगर   में,
शहरी   हवाओं   में   दम   घुट  रहा  है,
बहे   नीम,   पीपल,   बरगद   चमन  में,
धरोहऱ  में  अपनी  असर दिख  रहा है।
बहुत  हो चुका  अब  अँधेरे   से  डरना,
निशा का अब घटता असर दिख रहाहै।
उगा लें, चलो  अपने   हिस्से  का सूरज,
नई भोर का  पल  सुखद  दिख  रहा है।

— नीरजा बसंती

नीरजा बसंती

वरिष्ठ गीतकार कवयित्री व शिक्षिका स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार, रूश्तमपुर-गोरखपुर,उत्तर प्रदेश